अच्छा हुआ नकवी जी ने संपादकों का टेस्ट नहीं लिया !

media aur bhasha23 फरवरी को कलमकार की तरफ से मीडिया और भाषा पर एक संगोष्ठी हुई. वैसे बेबाक जुबान वाले आशुतोष की माने तो हिंदी भाषा पर स्यापा हुआ जिसपर मर्सिया पढ़ने वे भी आए थे. वैसे आलोक मेहता, राहुल देव समेत वहां कई नामचीन हस्तियाँ थी जिन्होंने भाषा पर अपनी – अपनी बात रखी. राहुल देव जो भाषा को लेकर पहले ही से काम कर रहे हैं. उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि हिंदी भाषा का रोज खून हो रहा है. अंग्रेजी बोलना आधुनिकता समझा जाने लगा है. व्यंग्यात्मक लहजे में उन्होंने कहा कि बहुत सारे लोग ‘पर’ तक नहीं बोलते. BUT बोलते हैं और उसी में आधुनिकता समझते हैं.

वैसे मीडिया और भाषा पर बात हो रही थी. हिंदी भाषा के प्रति इतनी चिंता हो रही थी. लेकिन संगोष्ठी का बैनर आधी हिंदी और आधी अंग्रेजी में लिखा गया था. कलमकार संस्थान जिसने कार्यक्रम आयोजित किया है उसका खुद का नाम बोल्ड और बड़े अक्षरों में अंग्रेजी में लिखा हुआ है. Kalmakar – thinking beyond.

हालाँकि कार्यक्रम के अंत में IBN-7 के अनंत विजय (आयोजकों की तरफ से) की तरफ से स्पष्टीकरण दिया गया कि कलमकार का यह ‘लोगो’ है और इसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं. फिर ये भी कहा गया कि संस्था सिर्फ हिंदी भाषा पर काम नहीं करती. ये अंग्रेजी समेत दूसरी भाषाओँ पर ऐसे कार्यक्रम करती है. इसलिए आगे भी कलमकार ऐसे ही अंग्रेजी में लिखा जाता रहेगा. ख़ैर हिंदी और अंग्रेजी में किसी में नाम लिखा जाए, कोई खास फर्क नहीं पड़ता. असल तो ये है कि काम क्या होता है. लेकिन फिर भी दो बातें इसमें जरूर कही जा सकती है. पहला कि कलमकार शब्द से हिंदी की खुशबू आती है और इसे अंग्रेजी में लिखना अपने आप में ही हास्यास्पद है. बेहतर होता कि संस्थापक कोई अंग्रेजी का नाम ही चुन लेते और उसे अंग्रेजी में ही लिखते. कोई सवाल नहीं उठता. दूसरी बात कि संस्था दूसरी भाषाओँ में काम करने वाली है या नहीं, ये दूसरे लोगों को कैसे पता चलेगा. अब तक दो कार्यक्रम हुए हैं (जिसकी जानकारी सार्वजनिक तौर पर डाली गयी) , दोनों हिंदी से ही संबंधित कार्यक्रम रहे.

ख़ैर ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं. वापस संगोष्ठी की परिचर्चा पर वापस लौटते हैं. संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार और आजतक के पूर्व न्यूज़ डायरेक्टर कमर वहीद नकवी ने की. सबसे ज्यादा सवालों का जवाब भी उन्होंने ही दिया और सबसे ज्यादा बात भी उन्हीं के तरफ से आयी. इसी क्रम में एक सज्जन हिंदी को लेकर तरह – तरह की चिंताएं जाहिर कर रहे थे. अंग्रेजी के अतिक्रमण से आतंकित थे. नकवी जी से सवाल पूछ रहे थे. सवाल खत्म होने के बाद नकवी जी ने उन सज्जन से कहा कि आपने गौर किया कि सवाल पूछने के क्रम में आपने कितने अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया तो सज्जन थोड़े अवाक हुए. नकवी जी ने कहा कि ये आपकी बोलचाल की सामान्य भाषा है . यदि आप ऐसे नहीं बोलेंगे तो ठीक तरह से सवाल नहीं पूछ पाएंगे. दरअसल हिंदी की समस्या है कि अंग्रेजी हमारे संस्कारों में भीतर तक घुस गया है. वैसे भाषा नदी की तरह है. भाषा जनता तय करती है. लेकिन उसके बावजूद भाषा को लेकर अराजक नहीं होना चाहिए. भाषा को लेकर अखबार – चैनल को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए.

इसी क्रम में उन्होंने एक दिलचस्प बात कही कि वे आजतक में बिना स्क्रिप्ट देखे किसी का इंटरव्यू नहीं लेते थे. लेकिन यदि पूरी तरह से भाषाई शुद्धता को ध्यान में रखकर आजतक के लिए उन्होंने पत्रकारों को काम पर रखा होता तो वे महज कुछ ही लोगों को रख पाते. फिर कुछ चुनौती देने के अंदाज़ में उन्होंने कहा कि आपको मेरी बात पर यकीन न हो तो हिंदी भाषा को लेकर इसी सेमिनार में परीक्षा ली जाए तो दो – तीन लोगों को छोड़कर बाकी फेल हो जायेंगे.

नकवी जी के इस कथन के बाद पीछे से फुसफुसाहट आयी कि नकवी जी हमें जरूर फेल कर दीजियेगा, लेकिन कम – से – कम चैनल के संपादकों को जरूर पास कर दीजियेगा. अच्छा हुआ टेस्ट नहीं हुआ. नहीं तो टेस्ट में बेस्ट संपादकों और उनके सहयोगियों का दम ………..!

3 COMMENTS

  1. नकवी जी के टेस्ट में जो संपादक पास हो जाते हैं उनका साक्षात्कार कैसे होता-

    नकवी- हां तो आपका टेस्ट तो अच्छा हुआ है, ये बताइये कि आप वहां संपादक हैं वहां आपको कितना माल मिलता है
    संपादक- “माल” !!!
    नकवी- अरे माल माने तनख्वाह
    संपादक – तनख्वाह तो जी 25 हजार ही मिलती है, इसीलिए तो….
    नकवी ( आंखें फाड़कर)- अच्छा 25 हजार मिल रही है …आपको नहीं लगता आपको बहुत ज्यादा पैसे मिल रहे हैं
    संपादक-…. जी !!! ज्यादा मिल रही है….
    नकवी- क्यों सुप्रिय इनको ज्यादा नहीं मिल रही…((सुप्रिय ने एक बार हां में सिर हिलाया फिर दो बार ना में …फिर हां हां करने लगे, किसी को समझ नहीं आया हां या ना ))
    संपादक- ( संपादक डरा जो मिल रही थी लगता है वो भी जाएगी )
    जी , 25 साल नौकरी करते हो गए…हर साल की एक हजार के हिसाब से जोड़ लीजिए तो भी ….

    नकवी- अच्छा ठीक है सोचते हैं ….आप भी सोचिएगा
    ((संपादक उठा जल्दी से सटक लिया कि कहीं 25 की 15 ना करवा दें नकवी जी ))
    सुप्रिय- क्या सोच रहे हैं सर
    नकवी- सोच रहा हूं मुझे भी 25 साल हो रहे हैं बीच में निकाला गया था उसे भी जोड़कर… मुझे 25 लाख तो मिलनी ही चाहिए ( खीसें निपोरकर …)
    सुप्रिय- ये तो है सर …और मेरी
    नकवी- तुम्हारी कितनी है?
    सुप्रिय – अरे सर छोड़िए मेरी ज्यादा नहीं है
    नकवी- नहीं बताओ तो
    सुप्रिय – नहीं सर मेरी जो भी है ठीक ही है
    नकवी- अरे मैं कम थोड़ी करवा दूंगा
    सुप्रिय- नहीं सर…ऐसा मत करवाइयेगा
    सर एक हेडलाइन ठीक करवा कर आता हूं ( सुप्रिय वहां से भागते हैं और अपने केबिन में आकर दोनो हाथों में चेहरा दबाकर सोच रहे हैं आज मैं भी बाल-बाल बच गया, नहीं तो बेवजह मारा जाता ।
    -सुभेच्छु
    ( नकवी जी को टेस्ट देने के बाद इंटरव्यू दे चुके लोगों से साक्षात्कार पर आधारित, घटना का किसी भी जीवित व्यक्ति से संबंध नहीं है, अगर नाम मिलते जुलते हों तो ये एक संयोंग मात्र है )

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