मीडिया में छाया हुआ है ऑनलाइन कारोबार,मगर हकीकत कुछ और है

भारत में बढ़ता ऑनलाइन कारोबार
भारत में बढ़ता ऑनलाइन कारोबार

हरजिंदर

भारत में बढ़ता ऑनलाइन कारोबार
भारत में बढ़ता ऑनलाइन कारोबार

ऑनलाइन कारोबार की जो आतिशबाजी इन दिनों चल रही है, उसमें शोर बहुत ज्यादा है और रोशनी बहुत कम। देश में होने वाले कुल खुदरा कारोबार का इसका हिस्सा महज एक फीसदी है और आमतौर पर इसका दायरा देश के 20-25 बड़े शहरों से आगे नहीं जाता। इसे लेकर चल रहा हो-हल्ला भले ही अखिल भारतीय स्तर पर मीडिया में छाया हो, लेकिन इसमें आप कभी यह नहीं पाएंगे कि खगड़िया या बहराइच के किसी व्यापारी ने शिकायत की हो कि ऑनलाइन शॉपिंग की वजह से उसकी बिक्री कम हो गई है। इतने छोटे शहरों को छोड़िए, दिल्ली के खारी बावली या कोंडली जैसे परंपरागत बाजारों के दुकानदार भी नहीं मानते कि ऑनलाइन शॉपिंग से उनकी दुकानदारी में कोई कमी आ गई है। इस पर सिर्फ किशोर बियानी जैसे वे लोग बोल रहे हैं, जो बड़े शहरों में फैले संगठित खुदरा बाजार में सक्रिय हैं और जिनके ग्राहक लगभग वही हैं, जिन्हें ऑनलाइन खुदरा कारोबारी अपना शिकार बनाने की फिराक में हैं। बावजूद इसके पूरे मामले को इस तरह पेश किया जा रहा है, जैसे ऑनलाइन कारोबार देश के परंपरागत खुदरा और किराना कारोबार को खत्म करने के लिए निकल पड़ा है।

यही उस समय भी होता है, जब खुदरा कारोबार में एफडीआई की बात चलती है। तब भी तुरंत यह बताया जाने लगता है कि अगर वॉलमार्ट जैसी कंपनियां भारत में आईं, तो कितने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैलेगी, और कितने किराना स्टोर बंद हो जाएंगे। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैलने के ये तर्क आर्थिक उदारीकरण की पहली कोशिशों के समय से ही चल रहे हैं और अभी तक तो हर बार गलत ही साबित हुए हैं। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि देश के परंपरागत खुदरा कारोबार पर कोई खतरा नहीं है। इस कारोबार पर मंडरा रहे खतरे बहुत बड़े हैं, लेकिन उनका ऑनलाइन शॉपिंग या विदेशी निवेश से कोई लेना-देना नहीं है। देश का परंपरागत खुदरा कारोबार सिर्फ कारोबार नहीं है, यह हमारी सामाजिक व्यवस्था का भी हिस्सा है। बेशक इस काम को कमाई के लिए किया जाता है, लेकिन यह समाज की बहुत सी जरूरतों को भी पूरा करता है। गली-मुहल्ले और गांवों तक फैली दुकानें न सिर्फ लोगों को उनकी जरूरत का सामान उपलब्ध कराती हैं, बल्कि अपने कारोबार को लोगों की आर्थिक स्थिति, उनके बजट और उनकी पगार वगैरह के साथ भी ढालती हैं।

वेतनभोगी लोगों को अगर वहां उधार पर सामान लेने की सहूलियत मिलती है, तो दिहाड़ी मजूरी पर काम करने वाले अपनी दैनिक जरूरत के हिसाब से उनसे बहुत थोड़ा-सा सामान भी खरीद सकते हैं। ऐसे ही, यह शहर-कस्बे के स्तर का कारोबार है, जो कुछ दूसरी तरह की जरूरतें पूरी करता है। इन सबके पीछे खड़ा एक परंपरागत थोक कारोबार भी है। और इन सभी तरह के कारोबार के सामने जो खतरे हैं, वे फिलहाल किसी तरह के आर्थिक दबाव के कारण उतने नहीं हैं, जितने कि वे सामाजिक दबाव से जुड़े हैं। खुदरा कारोबार करने वाली दुकानदारी की व्यवस्था संयुक्त परिवारों के दौर में विकसित हुई और फली-फूली है। ऐसी दुकान को एक संयुक्त परिवार ही चला सकता है, जो सुबह छह बजे से पहले खुल जाती हो और रात 10 बजे के बाद ही उसके दरवाजे बंद करने की नौबत आती हो। गली-मुहल्ले की दुकानें ही नहीं, देश के तमाम छोटे और मझोले व्यापारिक संस्थानों के कारोबार में भी संयुक्त परिवार की व्यवस्था बड़ी भूमिका निभाती रही है। वैसे तो हर जगह संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, लेकिन अगर कहीं थोड़े-बहुत बचे हैं, तो वे देश के व्यापारी और किसान समुदायों में ही बचे हैं, क्योंकि वहां लोगों के आर्थिक हित संयुक्त परिवार से जुड़े हुए हैं। लेकिन संयुक्त परिवारों के टूटने की शुरुआत अब इन समुदायों में भी हो चुकी है।

इसकी गति बढ़ी, तो वह आधार ही दरकने लगेगा, जिस पर भारत का परंपरागत खुदरा कारोबार अब तक खड़ा रहा है। इस समुदाय की सोच भी इस बीच काफी बदली है। मूल रूप से यह अपने खुद के कारोबार पर गर्व करने वाला समुदाय रहा है, नौकरी को यह अधम और असम्मानजनक मानता रहा है। साथ ही यह सोच भी रही है कि अपने काम से कमाई की जितनी संभावनाएं हैं, वे अच्छी सरकारी नौकरी में भी नहीं हैं। लेकिन उदारीकरण के बाद हुए सेवा क्षेत्र के विकास और आईटी क्रांति ने उसकी इस सोच को बदल दिया है। अब उन्होंने यह सच स्वीकारना शुरू कर दिया है कि ठीक-ठाक कमाई वाली ऐसी नौकरियां भी बाजार में मौजूद हैं, जो काफी सम्मानजनक भी हैं। नतीजा यह है कि व्यापारिक समुदाय के बच्चे बड़ी संख्या में आईटी और सेवा क्षेत्र में जा रहे हैं या जाने की तैयारी कर रहे हैं। उत्तर भारत के बनिया समुदाय में आजकल यह उक्ति अक्सर सुनाई दे जाती है कि अगर बेटा लायक निकला, पढ़-लिख गया, तो उसे चार्टेड एकाउंटेट बना देंगे, नहीं लायक निकला, तो दुकान पर बैठ जाएगा। इस तरह की सोच यह भी बताती है कि कहीं न कहीं इस समुदाय ने अपने आप को बदलाव के लिए तैयार कर लिया है।

सरकार चाहे तो खुदरा कारोबार में एफडीआई को अनंत काल के लिए रोक सकती है, वह चाहे तो संगठित खुदरा कारोबार पर भी रोक लगा सकती है, ऑनलाइन खुदरा कारोबार पर अंकुश के लिए भी कड़े नियम-कायदे बनाए जा सकते हैं, लेकिन सरकार किसी भी तरह से सामाजिक बदलाव को नहीं रोक सकती। यह उसके बस में भी नहीं है और यह उसका काम भी नहीं है। परंपरा किसी कारोबार को मजबूत आधार देती है, पर यह उसके अच्छे भविष्य की गारंटी नहीं है। कारोबार का अच्छा भविष्य उसके लगातार आधुनिकीकरण और लगातार कार्य-कुशलता बढ़ाने से ही तय होता है। दिक्कत यह है कि हमारा परंपरागत खुदरा कारोबार जिस आधार पर खड़ा है, उसमें कार्य-कुशलता के चरम पर वह पहले ही पहुंच चुका है। नए दौर की जरूरत के हिसाब से उसे कार्य-कुशल बनाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। यह काम संगठित या ऑनलाइन खुदरा कारोबार का रास्ता रोककर नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत, नए दौर के बाजार खुलने से उसे आधुनिक बनाने में मदद जरूर मिल सकती है। बस हमें इतना ख्याल रखना होगा कि तरक्की के हमारे नए सपने और कारोबार करने के हमारे पुराने तौर-तरीके शायद बहुत दूर तक साथ-साथ नहीं चल पाएंगे। इनमें से एक के साथ समझौता करना ही होगा, वरना कहीं हम दोनों से ही हाथ न धो बैठें।

(स्रोत-एफबी)

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