न्यूज चैनलों में नौकरी के लॉलीपॉप के बहाने…!

नवदीप दुग्गल

कॉरपोरेट की लात - पत्रकारों की दुर्गत
कॉरपोरेट की लात – पत्रकारों की दुर्गत
मीडिया में लोलीपॉप का चलन

बचपन में हम सबको काम कराने के लिए हमेशा से मीठी सी लोलीपोप का लालच देकर हमारे बड़े हम से काम करवा लेते थे और हम भी उस एक लोलीपोप के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते थे. इसी लोलीपोप के लालच ने ऐसे बहुत से कम भी करवाए जो हमे ना चाहते हुए भी करने पड़ते थे. मीडिया में भी एक लोलीपोप बहुत समय से प्रचलन में है जिसके बारे में बात करने में सभी बहुत घबराते हैं और घबराये भी क्यूँ नहीं आखिर उस लोलीपोप का लालच भी तो बहुत बड़ा दिया जाता है.

हमारे यहाँ के सभी बड़े मीडिया हाउसेस में नौकरी के नाम पर लोलीपोप के नाम का लालच देकर जितना काम करवाया जाता है अगर उतना काम के पैसे मिलने लग जाएँ तो रातो रात अंबानी तो नही लेकिन कुछ तो हम भी बन ही जायंगे। इंटर्नशिप का चलन लगभग हर न्यूज़ चैनल और अख़बारों के दफ्तरों में बेख़ौफ़ जारी है जहाँ सिखाने के नाम पर पत्रकारिता में कुछ कर गुजरने की चाहत लिए आये इस नयी पोध से हर तरह के काम करवाए जाते हैं और बदले में उन्हें दी जाती है – ” लोलीपोप ” और यह लोलीपोप इतने प्यार और दुलार के साथ मुँह में डाली जाती है की आप इसकी मीठास के लालच में रात दिन बिना थके बिना सोये हुए बस काम ही काम करते जाते हैं और काम भी ऐसा की अगर काम देने वाले को खुद वो काम करना पढ़ जाये तो उनकी नानी जी का याद आना तो उनको बनता ही है

बड़े ब्रांड्स के साथ काम करना किस नए पत्रकार की चाहत नहीं होती बस यह चाहत ही तो उसे लालच के दलदल में फंसा ले जाती है। चिकनी चुपड़ी बातों से बॉस लोग इतने प्यार से काम करवाते हैं की अगर घर पर उस से 2 % जितना भी काम करें तो माँ-पिताजी देसी घी के परांठे रोज खिलाएं। नए नए मीडिया में आये और खुद को पत्रकार कहने वाला इंटर्न को जब नौकरी का लालच दिया जाता है और कहा जाता है की बस तुम ही हो जो असली काम करते हो तब उस इंटर्न का सीना सुपरमैन से भी बड़ा हो जाता है लेकिन वो बेचारा यह नही समझ पता की ये तो वो हथकंडे हैं जिनसे उस से मुफ्त में इतना काम करवाया जाता है जिसे उसे पत्रकारिता की पढाई करते वक़्त कभी सुना भी नही था लेकिन तब भी नौकरी के लालच में वो न दिन देखता है और न रात बस देखता है तो एक सपना – नौकरी का सपना जिस से वो कर्ज में डूबे अपने परिवार की कुछ सहायता कर पाए , जिस से वो अपनी माँ को कुछ रुपए भेज पाए , जिस से वो अपने पिताजी की कुछ सहायता कर पाए , जिस से वो खुद कुछ आगे बन पाए.

जज्बातों से खेलना मीडिया में बहुत ही आम बात है जहाँ कभी स्टोरीज के साथ तो कभी लोगों के साथ खेल जाता है इसी खेल में बॉस लोग ये भूल जाते हैं की इस खेल से उन्हें शायद कभी कुछ फर्क ना पढ़े लेकिन ये खेल बहुत से योग्य और समझदार पत्रकारों की इस नयी नसल को उस गहरे अंधकार में धकेल देता है जहाँ वो अपने आप को ठगा हुआ महसूस करता है लेकिन वो चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाता है लेकिन जैसे की कहीं पढ़ा था की “हर रात के बाद सुबह जरूर होती है ” तो यहीं से शुरू होती है एक नयी आस – नौकरी की आस.…….

नवदीप दुग्गल की कलम से……

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.