ख़बरों के आधार पर खड़ा होगा लाइव इंडिया – सतीश के सिंह

satish k singh journalist

किताबें पढ़ना उनका शौक है खेलों में उनकी गहरी अभिरुचि है. खुद भी एथलीट थे. वे स्पोर्ट्स एडमिनिस्ट्रेटर बनना चाहते थे. स्पोर्ट्स की एकेडमी बनाना चाहते थे.लेकिन टेलीविजन न्यूज़ इंडस्ट्री में आ गए और तेजी से छा गए. हिंदी के न्यूज़ चैनल जब भूत-प्रेत लोक में जी रहे थे तब उन्होंने खांटी ख़बरें परोस कर ख़बरों को जीवनदान दिया और दर्शकों के बीच उस भरोसे को जिंदा रखा कि खबरनवीस अभी जिंदा है. उनके खान-पान में सादगी है. ‘सेल्फी कल्चर’ से वे दूर रहते हैं. सिनेमा भी उतना नहीं देखते.आखिरी फिल्म ‘माय नेम इज खान’ देखी थी. किताब हो या न्यूज़ कंटेंट, फिक्शन में उनको यकीन नहीं.टेलीविजन न्यूज़ चैनल के संपादक हैं मगर टेलीविजन की आलोचना से कतराते नहीं. हम बात कर रहे हैं हिंदी समाचार चैनल लाइव इंडिया के ग्रुप एडिटर ‘सतीश के.सिंह’ के बारे में. मीडिया खबर के संपादक पुष्कर पुष्प ने हाल ही में उनसे टेलीविजन न्यूज़ इंडस्ट्री के विविध पहलुओं पर बातचीत की और साथ ही पत्रकारिता के उनके अनुभवों के बारे में भी जाना.मीडिया खबर डॉट कॉम के पाठकों के लिए पेश है वर्ष 2015 का पहला साक्षात्कार. (साक्षात्कार की भाषा बातचीत की शैली में ही रखने की यथासंभव कोशिश की गयी है.इसलिए शब्द और वाक्य विन्यास के अलावा अंग्रेजी के कई शब्दों को भी ज्यों-का-त्यों रहने दिया गया है)

लाइव इंडिया के ग्रुप एडिटर सतीश के सिंह से मीडिया खबर के संपादक पुष्कर पुष्प की बातचीत

मीडिया खबर के मीडिया कॉनक्लेव में अपनी बात रखते सतीश के सिंह
मीडिया खबर के मीडिया कॉनक्लेव में अपनी बात रखते सतीश के सिंह

पत्रकारिता में आपको आए हुए दो दशक से ज्यादा हो चुका है. टेलीविजन न्यूज़ इंडस्ट्री में आप क्या परिवर्तन देखते हैं ? क्या कुछ बदलाव हुआ है ?

टेलीविजन का अपना अलग हिसाब – किताब है. वहां टीआरपी का दवाब रहता है और ज्यादा टीआरपी की आस में ही कई बार सीमाएं लांघी जाती है. इसी वजह से पहले एक ऐसा दौर भी आया था जिसमें खासकर हिंदी समाचार चैनलों पर सांप-बिच्छू वगैरह दिखाया जाता था. लेकिन अब उसमें थोड़ा सकरात्मक सुधार इधर दिखा है. टेलीविजन न्यूज़ इंडस्ट्री में हाल के दिनों में नयी चीजों को करने की कोशिश हो रही है. अब न्यूज़ चैनलों की ख़बरों में ट्रेडिशनल स्कूल ऑफ जर्नलिज्म का मिश्रण भी दिखाई देता है. यह परिवर्तन उन चैनलों पर भी दिख रहा है जिनका ढर्रा पहले कुछ और था लेकिन अब वे भी ट्रेडिशनल ट्रैक को पकड़ रहे हैं.

दूसरी बात है कि ओरिजिनल स्टोरी और ओरिजिनल रिपोर्टिंग की न्यूज़ इंडस्ट्री (टीवी) में बड़ी कमी है. ओरिजिनल से मतलब ऐसी स्टोरीज से है जो टेलीविजन के द्वारा की गयी हो और उसमें जर्नलिज्म भी दिखता हो. लेकिन उसकी कमी दिखाई पड़ती है. मुझे लगता है कि थोड़ा सा रिपोर्टिंग टीम में ह्रास आया है जिसे ठीक करने की  आवश्यकता है. यही वजह है कि जब आप हिंदी न्यूज़ चैनलों के स्क्रीन को ध्यान से देखते हैं तो आपको बहुत सी चीजें एक सी दिखाई देती हैं.

तीसरी चीज है कि एवोलुशन (Evolution) हो रहा है. चीजें बढ़ रही है. उसका विस्तार हो रहा है. नयी – नयी  सीमाओं तक टेलीविजन के लोग जा रहे हैं. हर तरह की प्रस्तुति हो रही है. लेकिन यहाँ बड़ी चुनौती सूचना और पत्रकारिता के अंतर को स्थापित करते हुए टेलीविजन जर्नलिज्म पर जोर डालना ताकि सूचनाओं को स्टोरीज में परिवर्तित किया जा सके और उसकी बदौलत उसके तमाम आयाम तक पहुँचा जाए. वैसे वर्तमान में इंफोर्मेशन ओवरलोड भी हो रहा है. लेकिन इससे चीजों को परिष्कृत करके उसको जर्नलिज्म के स्कूल के हिसाब से ढालना ही तो असल चुनौती है.

चौथी चीज ये है कि कि टेलीविजन में प्रतिभा की कमी है. प्रतिभाशाली लोग टीवी की तरफ नहीं आ रहे. उनका एक तरह से मोहभंग हो गया है.

टेलीविजन न्यूज़ इंडस्ट्री के लिहाज से एक अंतर ये भी देखता हूँ कि टेलीविजन चैनल को न सिर्फ टेलीविजन बल्कि अखबार से भी जबरदस्त टक्कर मिल रही है. एक वक्त पर जब अखबार की प्रभुसत्ता को टेलीविजन ने चुनौती दी तो कहा जाने लगा कि अखबार खत्म हो जायेगे. लेकिन अखबारों ने अपने आपको टीवी के मुकाबले खड़ा कर लिया है. अब अखबारों का प्रेजेंटेशन व लेआउट देखिए एकदम टीवी की तरह हो गया है.

टेलीविजन पर डिजिटल और सोशल मीडिया का भी प्रभाव पड़ा है और उससे कुछ बदलाव भी हुए हैं. पहले सोशल मीडिया जैसी चीजें नहीं थी लेकिन अब है. डिजिटल मीडिया में चीजें बहुत तेजी से आती है और फैल जाती है. उस लिहाज से टीवी के सामने टेक्नोलॉजी की चुनौती है. उसके अलावा सोशल मीडिया में भी कई तरह की जर्नलिज्म हो रही है इस सोशल जर्नलिज्म से भी टीवी मीडिया को भारी चुनौती है. हाँ पहले के मुकाबले कुछ चीजें अच्छी भी हुई है लेकिन जिस अनुपात में गुणवत्ता में बढोत्तरी होनी चाहिए थी वो नहीं हुई है.

आपने कहा कि टेलीविजन इंडस्ट्री में प्रतिभाएं नहीं आ रही ? वजह क्या है?

देखिए प्रतिभाएं अपेक्षाकृत कम आ रही है तो उसकी एक वजह ये हो सकती है कि लोग ज्यादा बेहतर विकल्पों की तरफ लोग जा रहे हैं. प्रतिभाओं की कमी की दूसरी वजह टेलीविजन पढ़ाने और पत्रकारिता के गुर सिखाने वाले इंस्टीट्युट भी हैं. ज्यादातर इंस्टिट्यूट का गुणवत्ता की दृष्टि से कोई स्टेंडर्ड ही नहीं है. तीसरी बात है कि टेलीविजन में जो अनिश्चित्तातएं होती है वो भी बाधक बनती है. चौथी बात है कि चयन प्रक्रिया में भी थोड़ी सी पारदर्शिता की कमी है. इस तरह ये तीन-चार कारण है जो प्रतिभाशाली लोगों को इंडस्ट्री में आने से रोक रही है.

टेलीविजन का अपना ग्लैमर रहा है और इस ग्लैमर की वजह से बहुत से युवा पत्रकारिता में आए.लेकिन कुछ सालों का अनुभव अच्छा नहीं रहा.न्यूज़ चैनेलों की हालत ठीक नहीं. कई चैनल बंद हो गए तो कई चैनलों में सैलरी का संकट रहता है.एक चैनल पर तो बाकयदा ये चला कि सैलरी संकट के कारण चैनल बंद किया जा रहा है. क्या मानते हैं कि ग्लैमर का तिलस्म टूटने की वजह से भी प्रतिभाशाली लोग नहीं आ रहे?

मैंने इन सारी चीजों के लिए एक शब्द कहा अनिश्चितता.एक स्योर,शॉट और सेक्योर करियर का न होना बहुत बड़ी वजह है. एक और कारण ये भी रहा कि टेलीविजन मीडियम में एक शोर गुल का माहौल जो बीच – बीच में बना, सीमाओं का अतिक्रमण हुआ, उससे भी लोग इससे हट गए.

डिजिटल मीडिया की चुनौतियों पर आपने बात की. भविष्य का मीडियम उसे ही कहा जा रहा है. टेलीविजन मीडिया डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया की चुनौतियों का कैसे सामना करेगा ?

सतीश के सिंह , वरिष्ठ पत्रकार
सतीश के सिंह , वरिष्ठ पत्रकार

देखिए जहाँ तक सामना करने की बात है तो ओरिजिनल जर्नलिज्म का कोई आल्टरनेटिव नहीं है. यदि आप मूलभूत ढंग से पत्रकारिता कर रहे हैं, अच्छी स्टोरीज कर रहे हैं, अच्छे कैम्पेन कर रहे हैं, दूर दराज तक जा रहे हैं, सोशल – इकोनोमिक और पर्सनल इश्यूज को सामने ला रहे हैं तब आपके लिए कोई चुनौती नहीं है. दरअसल चुनौती टेलीविजन को टेलीविजन से है, अपने आप से है. दूसरे किसी से नहीं है क्योंकि हरेक मीडियम अपनी सीमाओं में में अपना-अपना काम करेगा. हाँ ये जरूर है कि उसी में आपको स्पीड,गुणवत्ता, ओरिजनलिटी और सारगर्भिता देखनी है. ये चारों-पाँचों चीजें होंगी तो टेलीविजन गौण हो जाएगा ऐसा मैं नहीं मानता. ठीक है कि डिजिटल और सोशल मीडिया से एक चुनौती जरूर मिलेगी लेकिन ऐसे में ये साबित करने का मौका भी मिलेगा कि आप कितने अच्छे जर्नलिस्ट हैं?

आप देखते होंगे कि अखबार की ख़बरों को बहुत सारे डिजिटल मीडिया वाले या टेलीविजन अखबार वाले फॉलो  करते हैं. ऐसा क्यों करना पड़ता है क्योंकि अखबार में कुछ ओरिजनल ख़बरें रहती है जिसको आप फॉलो  करने पर मजबूर हो जाते हैं. ये एक पार्ट है. दूसरा इंटरएक्टिविटी का पार्ट है तो डिजिटल/सोशल मीडिया में बहुत ज्यादा इंटरएक्टिविटी है. उसकी तुलना में टेलीविजन को जितना अधिक उपयोग इंटरएक्टिव होना चाहिए था उतना हुआ नहीं है.लेकिन इसको बढ़ाया जा सकता है और इस प्रकार से चुनौतियों का सामना किया जा सकता है.

मेरे कहने का मतलब कुल मिलाकर यही है कि अपने आप को थोड़ा रिइन्वेंट कर लें, इंटरएक्टिविट बढ़ा लें, ओरिजिनल स्टोरीज पर आ जाएँ, अच्छे रिपोर्टर्स  रहे जिनमें मच्योरिटी दिखती हो तो आप अच्छे से लड़ाई लड़ सकते हो. वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि अभी भी टेलीवजन मीडियम सबसे आगे है. देखिए अखबार बीच में गौण हो रहा था अब वापिस आया है तो टेलीविजन भी अपनी चीजों को रीओरिएंट करके अपने आपको और धारदार माध्यम बना सकता है.

आपने फॉलो करने की बात कही. आजकल सोशल मीडिया पर बहुत सारी चीजें ऐसी आती है जो आने के बाद कई बार ‘वायरल’ हो जाती है और उसकी वजह से मजबूरन टेलीविजन (न्यूज़ चैनल) को उसे फॉलो करना पड़ता है. आपको नहीं लगता कि टेलीविजन अखबारों के अलावा अब सोशल मीडिया को भी फॉलो करने लगा है ?

हाँ कभी-कभी करता है. लेकिन अभी ये कंप्लीमेंट्री स्टेज में है. ख़बरें चाहे किसी मीडियम में क्यों न फूट रही हो,  उसको दूसरे मीडियम वाले कैच कर रहे हैं. तो वही तो मैं कह रहा हूँ कि अगर आप ‘ओरिजनल’ हैं,आप पहले तथ्यों को लेकर सामने सशक्त ढंग से सामने आते हैं तो दूसरे मीडियम वाले इसको फॉलो करेंगे ही.

लेकिन तथ्य ये भी है कि एक शोर-गुल का माहौल भी बना है जिसमें आप प्रोपगेंडा के एक टूल बन जाते हैं उससे डिजिटल मीडिया,सोशल मीडिया और टेलीविजन को बचना होगा. चीजें अनाप-शनाप न हो जाए. फॉलो करने से पहले ओरिजनलिटी को देखना होगा और अपने को संयमित रखकर अपने अनुभव और सोंच  के आधार पर ‘येलो जर्नलिज्म’ व ‘येलो वायरल’ से अपने आप को अलग करना होगा. तब जाकर चीजें ठीक होगी.

सीधा सा एक सवाल है कि सोशल मीडिया को टेलीविजन दोस्त की तरह देखता है या दुश्मन की तरह? वह उसके काम में सहायक है या बाधक? .कई बार टेलीविजन कुछ ख़बरों को नहीं करता लेकिन सोशल मीडिया के दवाब में उसे स्टोरी करनी पड़ती है क्योंकि दबी-कुचली वह खबर ‘वायरल’ हो चुकी होती है ?

देखिए सोशल मीडिया में बहुत चीजें ओरिजनल भी है लेकिन बहुत सारी चीजें प्रोपगेंडा व सेंसलिज्म के तहत भी मौजूद है उसकी क्रॉस चेकिंग नहीं है. लेकिन आपको टेलीविजन में सबसे ज्यादा क्रॉस चेकिंग दिखेगी. यहाँ सूत्र बहुत चलता नहीं. कोई भी चीज आप करते हैं तो उसे आपको स्थापित करनी पड़ती है.सबूतों के साथ साबित करना पड़ता है. जहाँ तक सवाल बाधा का है तो मैं नहीं सोंचता कि सोशल मीडिया बाधा हो सकती है. सोशल मीडिया टेलीविजन की सहायक हो सकती है. दोनों माध्यम एक – दूसरे के सहायक हो सकते हैं. लेकिन सबकी अपनी तासीर और तस्वीर अलग-अलग है. सोशल मीडिया की जो सबसे बड़ी कमी यही है कि कहीं-कही क्रैश सेंसलिज्म हो जाता है. क्रॉस चेकिंग नहीं रहती है और कभी-कभी इसके नतीजे बहुत खराब आए हैं. गलत तस्वीर चला दी, गलत चीज चला दी और उससे हंगामा हो गया और लोग विस्थापित हो गए. कहीं-कहीं हिंसा भी हो गयी है और कहीं-कहीं कानून व्यस्था की भी समस्या खड़ी हो गयी. उस दृष्टि से देखिए तो सोशल मीडिया भी संचालन और नियमन के उस ढर्रे में नहीं है, फिर आप उसमें अपना परिचय भी गुप्त रख सकते हैं.

ब्रिटेन के चैनल4 ने सोशल मीडिया के माध्यम से बैंगलोर में आईएसआईएस के एक ट्विटर एकाउंट को हैंडल करने वाले का भंडाफोड़ किया जिसे बाद में गिरफ्तार किया गया.आपको नहीं लगता कि इस खबर को किसी भारतीय चैनल को करना चाहिए था? सोशल मीडिया के माध्यम से ऐसी खोजी पत्रकारिता भी की जा सकती है. आपको नहीं लगता कि सोशल मीडिया के मामले में अभी भारतीय चैनल काफी कमजोर हैं?

बिल्कुल करनी चाहिए थी. इसलिए मैंने आपको यही कहा कि जो ओरिजनल रिपोर्टिंग, खोजी पत्रकारिता के संदर्भ में टेलीविजन न्यूज़ इंडस्ट्री को अभी बहुत काम करना है. यह सीमायें है. अब देखिए ‘स्टेरलाइजेशन’ वाली खबर अखबार की खबर निकली. ये बहुत सामने घटने वाली चीज है. 

विचार की मुद्रा में सतीश के सिंह
विचार की मुद्रा में सतीश के सिंह

बहरहाल अब थोड़ा पीछे चलते हैं और आपके पत्रकारीय जीवन पर बात करते हैं. आप इस पेशे में कैसे आ गए ? परिस्थितियाँ ले आयी या फिर बहुत सोंच-समझकर आए?

हम दोनों की वजह से आए. मेरे अंदर कहीं-न-कहीं जर्नलिस्ट जैसी चीज थी. 1977 में जब मैं पांचवी क्लास में था तब से ही सूचनाओं के प्रति आकर्षण था, चीजों के बारे में जानने की एक लालसा थी. कहने का मतलब है कि एक ओरिएंटेशन शुरू से ही था. बाद में जब कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि तुम ये काम कर सकते हो तो मुझे लगा कि मैं सही में ये कर सकता हूँ. सो मैं परिस्थिवश नहीं बल्कि सोंच कर जर्नलिज्म के पेशे में आया था.हालाँकि इस पेशे के बारे में जानकारी बहुत कुछ थी नहीं कि क्या होता है कैसे होता है? लेकिन जरूर लगता था कि इसमें सही तरीके से दिशा-निर्देशन मिले या कुछ जगह मिले तो मैं इसमें कुछ काम कर सकता हूँ.

भारतीय विद्या भवन से आपने पत्रकारिता की डिग्री ली. उसके बाद शुरुआत कैसे हुई?

देखिए मैं जर्नलिज्म की नौकरी खोज रहा था. लेकिन मुझे पता नहीं था कि यहाँ एंट्री कैसे होती है? तमाम अखबार और कुछ टेलीविजन संस्थाओं के भी चक्कर लगाए. इत्तेफाक से नलिनी सिंह ने मुझसे बात की और उन्होंने ‘हैलो जिंदगी’ प्रोग्राम के लिए मुझे रख लिया. ऐसे मुझे पहला ब्रेक मिला. मेरे लिए शुरुआत के लिहाज से ये बहुत अच्छी  बात रही कि उस समय की इतनी बड़ी हस्ती के साथ मुझे काम करने का मौका मिल गया और जब मौका मिल गया तब महीने भर के अंदर ही उन्होंने मेरी सैलरी दुगुनी कर दी. यहाँ मेरा रिसर्च और लंबे समय का अध्ययन काम आया. दरअसल पांचवी क्लास से ही मुझे अखबार,पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की जो आदत बनी वो दिल्ली विश्वविद्यालय आने तक नहीं छूटी और इसी के बदौलत दिल्ली विश्वविद्यालय में भी मैंने कई क्विज और स्पोर्ट्स क्विज कम्पीटिशन जीता.

उसके बाद ? आगे के सफर के बारे में बताएं.

उसके बाद एशिया पेसिफिक कम्युनिकेशन एसोसिएट में आया. वहां दिलीप पडगांवकर अरविंद दास और वर्षा सेन आदि थे और डीडी के लिए आधे घंटे का न्यूज़ कैप्सूल बनता था. उसमें काम करने लगा फिर वहां से 1996 में मैं ज़ी में आ गया 1996 से लेकर 2005 तक ज़ी में रहा. ज़ी में एडिटर भी बना. फिर एनडीटीवी में गया. वहाँ  बतौर सीनियर आउटपुट एडिटर तकरीबन पौने दो साल तक रहा. 2007 में फिर ज़ी न्यूज़ में एडिटर के तौर पर वापसी हुई. फिर अगले पांच साल तक वही रहा. फिर लाइव इंडिया में आया. बीच में कुछ दिन के लिए कहीं और चला गया और दुबारा फिर से लाइव इंडिया में वापस.

ज़ी न्यूज़ में जब आप एडिटर थे उस समय हिंदी न्यूज़ चैनलों पर भूत-प्रेत और सांप-बिच्छुओं का राज था. लेकिन ज़ी न्यूज़ खांटी ख़बरों पर ही कायम रहा. उस वक्त बतौर संपादक क्या ये कठिन फैसला नहीं था? रेस में पीछे छूटने का डर नहीं हुआ?

देखिए कुछ मामलों में पीछे छूटे भी. लेकिन उसका ‘गेन’ चैनल को बहुत ही दीर्घकालिक हुआ. उस समय हमलोग न्यूज़रूम में किसी फिल्म स्टार को नहीं आने देते थे. कोई आर फैक्टर को नहीं आने देते थे. आर फैक्टर से मेरा मतलब राजू श्रीवास्तव, राहुल महाजन, राखी सावंत आदि से है. मेरे एडिटर रहते हुए ये एक सेकेण्ड के लिए भी चैनल पर नहीं दिखे.

आपकी बात सही है. कोई दो राय नहीं कि उस दौर में तमाम चैनलों पर कहीं-न-कहीं ख़बरों के साथ खिलवाड़ हुआ और उस परिदृश्य के हिसाब से ये एक बहुत ही साहसिक कदम था. लेकिन उस दौर में भी मेरा मानना था कि एक सेंसिबल , इंफोर्मेशन और जर्नलिस्टक चैनल की आवश्यकता है. मैं ये महसूस करता था कि जनमानस को समझते हुए खांटी ख़बरों को उसी सांचे में ढालकर पेश किया जाए तो लोग उसे जरूर देखना पसंद करेंगे. ऐसा नहीं था कि वे सिर्फ राखी सावंत और राहुल महाजन को ही देखना पसंद करते हैं.इसकी गलत व्याख्या करके लोगों ने इसे तुल दिया. उसी सोंच और समझ-बूझ के आधार पर हमने ये फैसला किया कि हम विशुद्ध ख़बरें दिखायेंगे, बहस दिखायेंगे तो इससे हमें हानि नहीं होगी और मैं समझता हूँ कि हानि नहीं हुई. क्योंकि उस चैनल की इज्जत काफी बढ़ी. वैसे कहना तो नहीं चाहिए लेकिन उस दौर में जो प्रयोग ज़ी में हुआ वही प्रयोग अब तमाम चैनलों में हो रहा है. सारे चैनल उसी ट्रैक पर आ चुके हैं जिसपर उन्हें आना चहिये था. कई चैनलों की तो काया पलट हो चुकी है. कुल मिलाकर ज़ी को फायदा ही हुआ था. टीआरपी में भी सम्मानजनक स्थिति थी और ख़बरों (हिंदी ) के क्षेत्र में एक तरह से एकाधिकार हो गया था.

अच्छा कंटेंट देखने की चाहत रखने वाले दर्शकों की कभी कोई कमी नहीं रही. चैनल के संपादक भी अच्छा कंटेंट दिखाना चाहते हैं.लेकिन बीच में एक ऐसा दौर आया जब चैनलों पर भूत-प्रेत और ऐसे ही घटिया कंटेंट को जमकर दिखाया गया. क्या वजह रही ? क्या सिर्फ टीआरपी ही इसकी वजह थी?

कई वजह थी. देखिए कभी कोई मालिक या चैनल का प्रोमोटर किसी एडिटर को नहीं कहता कि तुम गंध चलाओ. एडिटर खुद- ब -खुद अजीब से दवाब को महसूस करते हुए,अपनी समझ से कुछ इस तरह का काम करते हैं और कहने लगे कि ये जर्नलिज्म से ज्यादा इन्फोटेनमेंट और न्यूज़टेनमेंट है. ये मालिक नहीं कहता, वो कहता है कि तुम अच्छे से नंबर लेकर आओ. आपने डिफाइन कर दिया कि ये अच्छा है और ये अच्छा नहीं है और ये भी मान लिया कि लोग अच्छा देखना ही नहीं पसंद नहीं करते. ज़ी न्यूज़ के माध्यम से हम ये सिद्ध कर देना चाहते थे कि खबरों के माध्यम से भी टीआरपी लायी जा सकती है. चैनल के लिए अच्छी टीआरपी लाना जरूरी है क्योंकि वो बिजनेस भी है. लेकिन ये मान लेना कि सिर्फ इंटरटेनमेंट से ऐसा होगा, सही नहीं है. इंटरटेनमेंट चैनल तो लोग देखते ही हैं न्यूज़ चैनलों में जिस चीज को प्राथमिकता देनी चाहिए वही गायब हो जाए तो ये तो ऐसी बात हो गयी कि बॉलर कहे कि मैं बैट्समन हो जाए और बैट्समन कहे कि बॉलर.

आप अपने प्राइमरी ट्रैक से हटोगे तो आप लांछन के पात्र निश्चित रूप से बनोगे और उस दौर में यही हुआ कि हम प्राइमरी ट्रैक को भूल गए और सोंचा कि फिर भी अपने आपको स्थापित कर लेंगे. उससे तात्कालिक रूप से तो टीआरपी का फायदा हुआ लेकिन ख़बरों की गरिमा के साथ जो छेड़छाड़ हुई उससे ब्रांड नहीं बना, इज्जत नहीं मिली. और उसकी वजह से जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई नहीं हो पायी.

दूसरा कि ख़बरों के लिहाज से जो सारगर्भित विषय हैं उसकी तह तक जाकर ख़बरों की तालीम होनी चाहिए. लेकिन आप यदि उस ट्रैक को नहीं पकड़ पाते हो आप दूसरे रास्ते पर चल पड़ते हो और उसके बाद आप दर्शकों को वो देखने के लिए विवश कर देते हो जो आप दर्शकों को दिखाना चाहते हो और उस दौर में यही हुआ.

एक वक्त पर ये कहा जाने लगा था कि हिंदी के न्यूज़ चैनल तीन सी – क्रिकेट,सिनेमा और क्राइम के फार्मूले पर चलती है.क्या अब हम उस दौर से आगे आ चुके हैं?

देखिए बढ़ना पड़ेगा. यदि नहीं बढ़े हैं तो…और बहुत हद तक बढ़े भी हैं. मेरा मानना है कि ख़बरों का कोई आल्टरनेटिव नहीं है. खबर का आल्टरनेटिव क्रिकेट,सिनेमा और क्राइम बने, ये सही नहीं है. वो ख़बरों के एक हिस्से की तरह चलेंगे. खेल भी एक खबर है, इंटरटेनमेंट भी खबर है, क्राइम खबर है वो अपनी जगह पर रहे. लेकिन खबरों को सिर्फ इन्हीं से बुलडोज कर देना ये तो वैसा ही होगा कि सिर्फ बाउंसर मार देंगे तो चल जाएगा जबकि ऐसा है नहीं. ये प्रमाणित हो चुका है. खबरों से छेडछाड नहीं हो सकती. ये है कि उसकी समझ आपको कितनी है पहले तो बजट वगैरह की कवरेज से भी हिंदी चैनल कतराते थे, अब सब करते हैं. क्योंकि आम जनता की भाषा में उसको परोसना आ गया तो लोग जान गए कि सिर्फ क्रिकेट,सिनेमा और क्राइम से काम नहीं चलेगा. अब क्वालिटी इंटरटेनमेंट का टाइम आ गया है. पहले खेल के नाम पर क्रिकेट था लेकिन अब दूसरे खेल भी आ गए हैं. लोगों के सामने क्या परोसा जा रहा है? उन्हें चयन का अवसर दें. न्यूज़ की विश्वसनीयता को बनाये रखने के लिए जरूरी है कि आप उसकी विश्वसनीयता को न लांघे.

राजनीति को आप करीब से देखते रहे हैं. लेकिन एक दौर आया था जब पॉलिटिकल रिपोर्टिंग हाशिए पर चली गयी थी. चैनलों से पॉलिटिकल रिपोर्टिंग कैसे गायब हुई और फिर उसकी वापसी कैसे हुई?

न्यूज़ से जब छेडछाड हुई तो उसमें सारी चीजें प्रभावित हो गयी. न्यूज़ से भटक गए तो हर चीज से भटक गए. पॉलिटिकल रिपोर्टिंग भी प्रभावित हो गयी. संसद की रिपोर्टिंग गौण हो गयी पोलिटिसियन की रिपोर्टिंग कम हो गयी.फिर क्रिकेट,सिनेमा और क्राइम के बीच जगह कहाँ थी? लेकिन जब न्यूज़ ने वापसी की तो पॉलिटिकल रिपोर्टिंग की भी वापसी हो गयी.

2014 का लोकसभा चुनाव कई मायनों में अलग था. मीडिया और खासकर टेलीविजन न्यूज़ के लिहाज से भी अलग था. मीडिया को राजनीतिक दल और उनके समर्थकों ने बहुत अलग तरीके से ट्रीट किया. पहली बार कई न्यूज़ चैनल स्पष्ट रूप से राजनीतिक पार्टियों के बीच विभाजित हो गए और उनकी कवरेज में साफ़ झलका कि वे अमुक पार्टी का समर्थन कर रहे हैं?

मेरी इस बारे में राय बड़ी स्पष्ट है. मेरा ये कहना है कि अगर कोई मीडिया हाउस एक पार्टी का समर्थन करता है लेकिन अघोषित रूप से तो मैं समझता हूँ कि ये अपराध है. ये जर्नलिस्टिक अपराध है. लेकिन मैं एक मीडिया हाउस हूँ और मेरा साफ़ कहना है कि मैं फलाने पार्टी का समर्थक हूँ तो उसके बाद वह जो करता है तो कोई हर्ज नहीं है. जैसे कि आप टेलीविजन चैनल देखेंगे तो देखेगे कि एक एडविटोरियल चलता है उसमें एडवरटीजमेंट लिख दिया जाता है. उसी तरह से चैनल ये लिख दे कि मैं इस पार्टी का सिम्पेथाईज(sympathiser) हूँ तब कोई दिक्कत नहीं. बहुत सारे अखबार व पत्र-पत्रिकाएं हैं जो उनके लोग निकालते हैं. उसी प्रकार से आप अपने आप को घोषित कर दें. लेकिन आप उसकी आड़ में निष्पक्ष पत्रकारिता का दावा करते हैं तो वो प्रोपगेंडा है और ठीक नहीं है. उससे उसकी विश्वसनीयता तो घटती ही है, साथ ही पूरे प्रोफेशन की भी घटती है. आप घोषित कर देंगे तो किसी तरह के असमंजस की स्थिति नहीं होगी. जिसे देखना होगा वो देखेगा और नहीं देखना होगा नही देखेगा. उस पार्टी के समर्थक देखेंगे. चोरी-छिपे करना गलत है.

2014 मीडिया का चुनाव था और उसमें दुरुपयोग भी हुआ है. चाहे इसके पीछे व्यावसायिक कारण ही क्यों न हो? बहुत सारी बातें पक्षपातपूर्ण दिखी जिससे बचना होगा. इसमें इलेक्शन कमीशन को भी भूमिका निभानी होगी. प्रेस काउंसिल को भूमिका निभानी होगी. स्वनियमन भी जरूरी है और सबसे जरूरी कि एक लक्ष्मण रेखा बनानी होगी. यदि आप पूरी तरह से प्रोपगेंडा के टूल बन जायेंगे तो ये तो पूरे बिरादरी की बेइज्जती है.

लोकसभा चुनाव के दौरान खासतौर से कुछ पत्रकारों को राजनीतिक दलों के समर्थकों द्वारा टारगेट किया गया.समर्थकों का आरोप था कि ये पत्रकार खास पार्टी के एजेंडे को ध्यान में रखकर रिपोर्टिंग/एंकरिंग करते हैं? आपकी इस बारे में क्या राय है और ऐसे हालात में पत्रकारों के लिए काम करना कितना मुश्किल हो गया है?

देखिए इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कह सकता लेकिन इतना जरूर है कि आप प्रोफेशनल वे में चलेंगे तो चला जा सकता है.

लेकिन बहस में आजकल एक बहुत कॉमन चीज हो गयी है कि पत्रकार जब नेताओं से कठिन सवाल पूछते हैं तो नेता पलटकर कई बार उनसे ही व्यक्तिगत सवाल कर सवाल को कमजोर कर देते हैं? मसलन आजतक के एजेंडे कार्यक्रम में जब राजदीप सरदेसाई भाजपा के नेता से पिछले दस साल में अडानी की बढती संपति से संबंधित सवाल करते हैं तो भाजपा नेता राजदीप को ही घेरने की कोशिश में कहते हैं कि क्या दस साल में आपकी संपत्ति नहीं बढ़ी है? क्या आपको नहीं लगता कि पत्रकारों को व्यक्तिगत तौर पर टारगेट किया जा रहा है?

ऐसी बात नहीं है कि ऐसे मौके नहीं आते. अगर आप अपने आप को चिन्हित करेंगे, अपने आप को कहीं जोडेंगे तो ये सारी बाधाएं आएँगी. मैंने पहले भी कहा है कि आप प्रोफेशनल वे में चलेंगे तो ये नहीं होगा. एक पॉलिटिसियन प्रभावी उत्तर देने के लिए दूसरे को निष्प्रभावी करने की कोशिश तो करता ही है. लेकिन मैं फिर कहूँगा कि आप प्रोफेशनल वे में चलेंगे तो ऐसी दिक्कतें नहीं होगी. लेकिन यदि यदि आप चिन्हित नहीं हैं और आपको खासतौर से टारगेट किया जा रहा है तो ये खराब स्थिति है. वैसा मेरा मानना है कि यदि आप अपने जर्नलिस्टिक एथिक्स को सामने रख रखे हैं तो बहुत कम ऐसी संभावना है कि ऐसा हो.

लोकसभा चुनाव के दौरान कई पत्रकार पत्रकारिता छोड़कर राजनीति के मैदान में कूद गए. कहीं इस वजह से तो पत्रकार निशाने पर नहीं आ गए हैं?

हो सकता है. लेकिन एक कारण किसी भी चीज का नहीं होता. कई कारण हो सकते हैं. पत्रकार, पत्रकार रहते हुए भी एक खास वर्ग के लिए सहानुभूति रख रहे हो, एक खास मीडिया हाउस में काम कर रहे थे, हो सकता हो कि उनका कोई व्यक्तिगत एजेंडा हो तो इसका प्रभाव निश्चित रूप से पड़ेगा.

दूसरी बात कि ऐसा काम करेगा कोई और उसके टारगेट में हम और आप भी आ जायेंगे.

तीसरी बात कि पॉलिटिकल पार्टियां भी ये आंकलन कर चलती है कि कितनों को साथ लेकर चलना है और जो हमारे विरोधी हैं उनको चिन्हित कर लिया जाए. ये एक तरह से चलता है.लेकिन इन सबसे बचने का एक ही उपाय है कि इनसे ऊपर उठकर अपने जर्नलिस्टिक एथिक्स की बदौलत अपनी पहचान बना ले ये सबसे बेहतर है. 

सतीश के.सिंह, एडिटर-इन-चीफ,लाइव इंडिया
सतीश के.सिंह, एडिटर-इन-चीफ,लाइव इंडिया

लाइव इंडिया को लेकर क्या योजनाएं चल रही है? क्या कुछ नया कर रहे हैं? लाइव इंडिया का स्क्रीन कुछ-कुछ बदला नज़र आ रहा है.

देखिए न्यूज़ के आधार पर हमें खड़ा होना है. उसी की कोशिश चल रही है. हम धार लायेंगे. इन्वेस्टीगेशन पर हमारा ज्यादा जोर होगा. लाइव इंडिया पर आपको पक्षपातपूर्ण कहीं कुछ नहीं दिखेगा. अभी हमने दो शो शुरू किए हैं – एक्सरे और मास्टरमाइंड के नाम से. दोनों इन्वेस्टीगेशन पर ही आधारित है. इसके अलावा हमने हेल्पलाइन शुरू की है. लाइव इंडिया हेल्पलाइन. ये साढ़े तीन बजे शनिवार को आता है. अभी एक दो डिस्कशन शो को रेगुलर रूप से लाने जा रहे हैं. देखें इसमें क्या हो सकता है. एक – दो चेहरे भी हम जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. न्यूज़ और व्यूज के हिसाब से इसे हम आगे ले जायेंगे. लेकिन हमारा मूलभूत जोर सारगर्भित डिस्कशन सारगर्भित खबर के तह तक जाना होगा.

लाइव इंडिया हेल्पलाइन के बारे में बताएं?

लाइव इंडिया हेल्पलाइन के जरिए हमारी कोशिश लोगों से जुड़े मुद्दे को उठाना और उनकी मदद करना है, जैसे पेंशन नहीं मिल रहा हो डॉक्टर नहीं आ रहे हो, सफाई नहीं हो रही हो, पुलिस ध्यान नहीं दे रही हो. तो हम लोगों से चिठ्ठी-पत्री,एसएमएस मंगा रहे हैं और उसी हिसाब से टॉपिक ले-लेकर संबंधित ऑथिरिटी तक बात पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं. लोगों की मदद करना शो का मुख्य उद्देश्य है. उनकी चिठ्ठियों का जवाब देना उनकी चिठ्ठियों को सही जगह पर पहुँचाना वगैरह – वगैरह लाव इंडिया हेल्पलाइन के तहत होता है. इसके लिए एक मॉनिटरिंग रूम है और जब वहां फोन आता है तो उसको हम रिसीव करते हैं. एक तरह से सरकार की जो सर्विस डिलीवरी की व्यस्था है उसको सुनिश्चित करने के लिए हम एक जरिया बनने की कोशिश लाइव इंडिया हेल्पलाइन के जरिए कर रहे हैं.

अभी हाल में हिसार में एक तथाकथित धर्मगुरु की गिरफ्तारी की कवरेज के लिए गए पत्रकारों को पुलिस ने बुरी तरह से मारा. इसमें लाइव इंडिया के एक पत्रकार भी बुरी तरह जख्मी हुए और अस्पताल में उन्हें दाखिल भी कराना पड़ा. पूरी घटना को आप कैसे देखते हैं?

दरअसल ये एक तरह का पुलिसिया जुल्म है. स्टेट का जुल्म है या फिर अकर्मण्यता है. पत्रकारों को पीटने का क्या मतलब है? वे तो सिर्फ कवरेज करने गए थे. वैसे मैं समझता हूँ कि पत्रकारिता के लिए ये एक अचीवमेंट है कि पत्रकारों ने ठीक से कवरेज किया और इसलिए पुलिसिया जुल्म के शिकार हो गए. 

किताबों के शौकीन सतीश के सिंह
किताबों के शौकीन सतीश के सिंह

आपके बारे में सुना है कि आपको किताबें पढ़ने का बहुत शौक है तो अमूमन क्या पढ़ना पसंद करते हैं ?

मुझे बड़े लोगों का बायोग्राफी पढ़ना बहुत पसंद है. सोशल,इकोनोमिक और पॉलिटिकल हैपेनिंग थ्रूआउट द हिस्ट्री वो भी पढ़ना बहुत पसंद है. मैं फिक्शन में ‘बिलीव’ नहीं करता. साहित्य में मेरी वैसी कोई रूचि नहीं है. सोशल,इकोनोमिक और पॉलिटिकल हैपेनिंग को जानना,समझना और चर्चा करना और उसपर कभी लिखना या बोलना मुझे बेहद-बेहद पसंद है. अखबार बहुत पढता हूँ. दरअसल पढ़ना इसलिए भी जरूरी है कि आप जबतक खुद नहीं समझेंगे तो दर्शकों को क्या समझायेंगे? फिर आप कहेंगे कि जनता तो ये देखना ही नहीं चाहती.

हाल में कोई किताब आपने पढ़ी है?

हाँ अभी हाल में मैंने राजदीप सरदेसाई की किताब पढ़ी है. 2014 को समझने की दृष्टि से उन्होंने क्या लिखा और मैं क्या समझता था. अभी प्रणव मुखर्जी की एक किताब आयी है, उसे पढूंगा. इस तरह की किताबें पढ़ना मुझे पसंद है और खूब पढता हूँ.

वैसे आजकल शिकायत है कि टीवी न्यूज़ वाले पढते नहीं?

हाँ ये तो दिक्कत है. पढ़े हुए भी नहीं हैं और पढते भी नहीं तो क्या स्टेंडर्ड होगा? आप समझ सकते हैं.

टेलीविजन एक व्यस्त माध्यम है और उस व्यस्तता में से पढ़ने के लिए समय निकालना कठिन काम है. ऐसा बहुत सारे टीवी जर्नलिस्ट मानते हैं. आप कैसे वक्त निकालते हैं ?

ये बेफजूल की बातें हैं. ऐसा बिल्कुल भी नहीं. यदि आप सलीके से काम करेंगे तो आपके पास समय है और ब्रेकिंग न्यूज़ की आपधापी के बीच में भी आप पढ़ने के लिए समय निकाल ही लेंगे.

अच्छा एक सवाल खान-पान से संबंधित है. खाने-पीने में आपको क्या पसंद है?

खाने में एकदम साधारण देशी खाना मुझे पसंद है. वैसे कोई खास शौक नहीं है. न फ़िल्में देखता हूँ और न खाने का ऐसा कोई शौकीन हूँ. न पहनने का कोई शौक है, जो मिल गया सो पहन लिया जो मिल गया सो खा लिया. आखिरी सिनेमा ‘माय नेम इज खान’ देखी थी वो भी बच्चों को दिखाने के लिए ले गया था. खाने में आप कह सकते हैं कि कड़ी-बड़ी बहुत खाता हूँ. वैसे जो मिल गया वो खा लेता हूँ. अच्छा से अच्छा खाना और खराब से खराब खाना भी खा लेता हूँ. ईमानदारी से कहूँ तो खाने-पीने का मैं उतना शौकीन नहीं. लोगों से मिलना-जुलना, चर्चा करना और पढ़े – लिखे लोग खोजना ही मेरा शौक है.

पढ़ने के अलावा कोई और शौक?

स्पोर्ट्स मुझे बेहद पसंद है और उसे लेकर मेरे अंदर बहुत उत्साह है. कह सकते हैं कि स्पोर्ट्स मेरे रग-रग में बसा हुआ है. लेकिन इसमें क्रिकेट का अंश बहुत कम है. क्रिकेट पहले बहुत देखता सुनता और पढता था, अब छोड़ दिया क्योंकि मुझे ये गेम अब पसंद नहीं क्योंकि लगता है कि सब पहले से ही फिक्स है. क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में मेरी बहुत गहरी रूचि है. हालाँकि जितना लिखना-पढ़ना और समझने की कोशिश करनी चाहिए थी उतना नहीं कर पा रहा हूँ अब. नहीं तो 1896 से लेकर लंदन ओलम्पिक तक लगभग दो – ढाई हजार विनर के नाम मुझे मुंहजबानी याद थी.

खेलों में आपकी गहरी रूचि है तो कभी खेल पत्रकार बनने की नहीं सोची?

सोंचा तो था मगर मौका ही नहीं मिला. (मुस्कुराते हुए…) ! मगर आपको इतना बता दूँ कि ज़ी न्यूज़ का अटलांटा ओलम्पिक का जो कवरेज था उसे मैंने ही बनाया था जिस ओलम्पिक में कार्ल लुईस ने चार गोल्ड मेडल जीते थे. चैनल के स्पोर्ट्स से संबंधित कार्यक्रम में भी मैं जुड़ा हुआ रहता हूँ. अभी भी खेल से संबंधित कार्यक्रम होते हैं तो मेरी उसमें सक्रिय भागेदारी होती है. लेकिन वो मेरे दिलचस्पी का विषय है, मेरे प्रोफेशन का विषय नहीं है. मैं खेलता भी हूँ. मेरी चाहत है इसलिए करता हूँ. एथलेटिक्स, स्विमिंग, बॉक्सिंग को बड़े चाव से फॉलो करते रहता हूँ. हॉकी में भी गहरी अभिरुचि है. लेकिन आजकल खेलों को लेकर थोड़ी सी रूचि कम हुई है नहीं तो पहले तो खेलों के पीछे मैं इस कदर पागल था कि दिल्ली के स्थानीय क्रिकेट/स्पोर्ट्स क्लब के भी नाम मुझे याद रहते थे. आप कह सकते हैं स्पोर्ट्स का मैं भयानक एन्थूज़ीऐस्ट(enthusiast)हूँ. मेरी इच्छा है कि क्रिकेट मर जाए और बाकी जो ओलम्पिक खेल हैं उनको हिन्दुतान के अंदर वो इज्जत मिले जो मिलनी चाहिए. मैंने खेलों का इतिहास पढ़ा है और उस आधार पर कह सकता हूँ कि 125 करोड़ का देश अगर ओलम्पिक में एक गोल्ड मेडल के लिए अभी तक लड़ रहा हो तो वो देश सुपर पावर कैसे हो सकता है? कौन ऐसा देश है जी ओलंपिक में जीता हो और सुपरपावर के केटेगरी में न रहा हो ? लेकिन क्या करें जागरूकता नहीं है. गवर्नमेंट की पॉलिसी नही है. कुछ एसोसियेशन इधर-उधर क्षत-विक्षत हैं.

इस हालत के लिए कुछ हद तक न्यूज़ चैनल भी जिम्मेदार हैं. चैनलों पर स्पोर्टस के नाम पर क्रिकेट ही क्रिकेट ?

देखिए बेवकूफी की कोई सीमा नहीं होती. ये आपकी लिमिटेशन है. आप दस दिन बढ़िया से फूटबाल दिखाइए लोग देखना शुरू कर देंगे. एशियन गेम्स और ओलम्पिक में तो कुछ –न- कुछ तो दिखाते ही हैं. लेकिन मैं अकेले क्या -क्या कर सकता हूँ. मैं तो स्पोर्ट्स एडमिनिस्ट्रेटर बनना चाहता हूँ मेरी दिली इच्छा थी कि एथेलेटिक्स की एकेडमी बनाऊं. मैं खुद भी एथलीट था. लेकिन अब तो ये हो नहीं सकता.

विद्यार्थियों को संबोधित करते सतीश के सिंह
विद्यार्थियों को संबोधित करते सतीश के सिंह

आखिरी बात जो नए लोग पत्रकारिता में खासकर टेलीविजन पत्रकारिता में आना चाह रहे हैं, उन्हें आप क्या राय देना चाहेंगे?

हम उनको यही राय देना चाहेंगे कि पहला काम ज्ञान की दृष्टि से मत पिछडो. हम तो पॉलिटिकल साइंस के स्टूडेंट थे. लेकिन अपने ज्ञान की वजह से आगे बढ़ गए. नहीं तो जब आए थे तब पहली बार टीवी देखा ही था. दूसरी चीज कि टेलीविजन की जो टेक्नीकल रिक्वायरमेंट्स है उसके हुनर को हासिल करो. तीसरी बात कि पढाई के दौरान ही आपके पचास जान-पहचान होनी चाहिए. सोशल मीडिया पर लिखो. एक्टिव जर्नलिस्ट शुरू से ही होना चाहिए. ये नहीं कि रुक – रुक कर के कि पहले इंटर्नशिप करेंगे, फिर एक्टिव जर्नलिस्ट बनेंगे. जर्नलिस्ट-जर्नलिस्ट होता है. आप दुनिया को नहीं अपने आप को देखिए. आप अपने सबसे बड़े कम्पीटीटर है. अपने मुकाम को बहुत हाई रख उस हिसाब से अपने आप को तैयार कीजिये. समझ लीजिए कि आपको बीबीसी में काम करना है या सीएनएन ने आपको सेलेक्ट कर लिया है तो उस दृष्टि से अपने आपको बनाओ.

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