मीडिया के मायने और मर्यादायें-कितनी सही:डॉ. अनवर खुर्शीद की मौत पर विशेष

संजीव चौहान

मीडिया का एजेंडा
मीडिया का एजेंडा

कायदे की बात की जाये, तो मीडिया (अखबार और टेलीवीजन पत्रकारिता) से जुड़े होने के नाते तो, मैं जिस मुद्दे पर कलम चला रहा हूं, इस मुद्दे पर मुझे कुछ लिखना ही नहीं चाहिए। यह बात तो थी धंधे की मजबूरियां, प्रफेशनलिज्म की बंदिशें, दायरों , दीवारों और धंधे की कंटीले बाड़ों की । अगर मैं इंसान हूं, घर-परिवार और इसी समाज का हिस्सा हूं, तो मुझे इस विषय पर कलम चलाने से पहले कुछ सोचना ही नहीं चाहिए। लिखने के परिणाम क्या होंगे, इसे तो और भी कठोरता से नजरंदाज कर देना चाहिए। जो होगा देखा जायेगा। समाज है। सामाजिक मर्यादायें हैं। समाज ही एक वह जगह है, जिसमें अच्छे-बुरे सब खप रहे हैं। या यूं कहूं कि, आज के समाज में सब खप जाते हैं, तो भी अनुचित नहीं होगा।

खैर बात मुद्दे की करते हैं। मैं लिखना चाह रहा हूं, लेखक, कवि, समाज-सेवी डॉ. अनवर खुर्शीद की मौत पर। मौत असामायिक थी या समय से ! इस बात को ‘वक्त’ पर छोड़ता हूं। मुद्दा है कि, किसी की मौत हुई कैसे और किन हालातों में। डॉ. खुर्शीद बुद्धिजीवी थे। शेर-ओ-शायरी भी करते थे। स्वतंत्र लेखन भी करते थे। समाजिक मुद्दों पर अक्सर बहस में भी उलझते थे। अचानक उनकी जिंदगी में तूफान आ गया। इस तूफान की रफ्तार से वे तो काफी समय से जूझ रहे थे। सोच भी रहे होंगे कि वक्त के साथ इस तूफान के थपेड़ों की रफ्तार शायद कम हो जायेगी। रफ्तार कम हो भी जाती, मगर एक साथ उनके खिलाफ हवाओं ने जो साजिश रची, उसने तूफान की गति को थामने के बजाये, हवा दी। शायद उस हवा का ही दुष्परिणाम खुर्शीद की दर्दनाक मौत के रुप में सामने आया है। जिसकी कल्पना किसी को नहीं रही होगी।

डॉ. खुर्शीद की मौत का जिम्मेदार कौन बनेगा या कौन है? इस सवाल का जवाब फिलहाल भविष्य के गर्भ में है। इस वक्त कोई निर्णय ले लेना जल्दबाजी होगा। मुद्ददा यह है कि मौजूदा जो हालात बने, या जिन हालातों में घिरे-घिरे उनकी मौत हुई, वो विचार का बिंदु है। क्या वाकई डॉ. खुर्शीद इस कदर चारो ओर से घिर चुके थे, कि वे इस तरह की मौत को गले लगाने को मजबूर हो गये। या फिर जो उनकी सोच का स्तर था, एक बुद्धिजीवी सोच का, उस पर चलने में वे कहीं जाने-अनजाने गच्चा खा गये, और उससे बचने का कोई रास्ता न देख, उन्होंने ऐसा कदम उठा लिया, जिसकी किसी ने सोची भी नहीं थी।

जो भी हो, इस विषय पर फिलहाल जितनी मुंह उतनी बातें देश में सुनने-देखने को मिल रही हैं। साथ ही एक बात और भी चल रही है। वह यह कि जो भी हो, डॉ. खुर्शीद इस तरह के झंझावत में फंस कर रह जायेंगे, इसकी भी किसी ने कल्पना नहीं की थी। जो भी हुआ बुरा हुआ। उन पर आरोप लगे, उन आरोपों की जांच हो रही है। जांच होनी भी चाहिए। मैं यह तरफदारी नहीं कर रहा कि, अब इस मामले की जांच को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाये। जांच अगर निष्पक्ष होती है, तो इससे दोनो ही पक्ष सामने आयेंगे। डॉ. खुर्शीद बे-कसूर थे या फिर कसूरवार। हां, अगर जांच में वह बे-कसूर साबित हुए, तो हमारे इसी समाज के पास फिर कौन सा वो रास्ता होगा, जिस पर चलकर हम और यह समाज डॉ. खुर्शीद की मौत का हिसाब चुकता कर पायेंगे।

दूसरी बात यह है कि खुर्शीद पर लगे आरोपों की जब जांच अभी अधूरी थी, तो फिर समाज को दिशा देने वाला और लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया, इस कदर बाचाली पर क्यों और किसके इशारे पर उतर आया, कि आरोपों का सामना करने और अपना पक्ष रखने से पहले ही खुर्शीद रुखसत-ए-जहां हो गये। जेहन में सवाल कौंधता है, कि क्या मीडिया ने जिस तरह से आरोपों की जांच से पहले ही डॉ. खुर्शीद की छीछालेदर शुरु कर दी, वो करनी चाहिए थी। मीडिया (टेलीवीजन) ने अगर पीड़ित लड़की को सामने लाकर बड़ा काम किया, तो क्या उस लड़की के सामने आरोपी डॉ. खुर्शीद को भी लाने का एक छोटा सा काम किया। अगर नहीं किया, तो क्या मीडिया (टीवी न्यूज चैनल) की यह जिम्मेदारी नहीं बनती है, कि जिस प्रोग्राम से उसकी टीआरपी आनी है, उसमें वो गाय और कसाई दोनो का ही आमना-सामना कराता। मेरी सोच से अगर ऐसा हो गया होता, तो शायद आज हालातों का रुख अलग ही होता।

जो भी हो, मेरा निजी मत तो यह है कि, मीडिया घरानों के मठाधीशों को कम-से-कम कोई ऐसा कदम उठाने से पहले सौ बार सोचना जरुर चाहिए, जिसमें किसी के मान-सम्मान की बात हो, कि कहीं कोई बे-कसूर ‘बलि का बकरा’ न बन रहा हो। भले ही एक कसूरवार बच जाये। जहां तक मेरा अपना ज्ञान है, एक सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले हमारे देश का कानून भी यही कहता है, कि सौ कसूरवार बच जायें, मगर एक बे-कसूर को सज़ा न मिल जाये। ऐसे में अब सवाल यह पैदा होता है कि, फिर मीडिया क्या कानून से भी ऊपर है। जोकि, जब, जैसे, जिसे चाहे मुजरिम करार दे। दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि, अगर ऐसे मामले में कहीं मीडिया की गर्दन फंस रही है, तो क्या उसके साथ रियायत बरती जानी चाहिए।

संजीव चौहान
संजीव चौहान

विचार सबके अपने-अपने हो सकते हैं। जरुरी नहीं कि हर कोई हर किसी के विचार से सहमत हो। हां, मगर मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूं कि, मीडिया, मीडिया की भूमिका छोड़कर, “माननीय” (कानून) की भूमिका में उतर आये और एकतरफा फैसला सुनाकर, किसी को भी सज़ायाफ्ता करार दे। यह सरासर अनुचित तो है ही, साथ ही आने वाले वक्त में यह घटिया परिपाटी मीडिया के लिए ही भारी पड़ सकती है। मीडिया माध्यम तो बने, मगर माननीय न बने। मीडिया का “माननीय” बनना आज नहीं तो आने वाले कल में उसके खुद के लिए भी मुसीबतें खड़ी करेगा।

1 COMMENT

  1. ye ajkal ek nya bhut khatarnak trend chala hai ki sirf allegation par sza milne lagti hai. Aisa nhi ki rape ka har ilzam sahi hee ho lekin jis tarah media aur samaj sirf ek aurat ke ilzam per react karta hai woh hamari puri nayyay vevastha par ek sawal khara karta hai.Kuch log hote hai jo apne upar lage ilzam se larhte hai aur kuch log mare sharam ke apni jaan de dete hai.Nedia ko is tarah ke mamle me sirf ilzam lagane wali aurat ka bharosa nhi karna chahiye balki us admi ko bhi apna paksh rakhne ka mauqa dena chahiye jis par ilzam laga hai.

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