असली मुद्दे पर चुप्पी और फालतू मुद्दों पर हर-हर मीडिया!

मनीष कुमार

हर - हर मोदी पर मीडिया
हर – हर मोदी पर मीडिया

ये चुनाव अजीब है.चुनाव की सरगरमियों के बीच मीडिया दिशाहीन हो गई है.. एक व्यक्ति जो दस साल तक देश का प्रधानमंत्री होने की एक्टिंग करता रहा… देश का ऐसा सर्वोच्च नेता जिसका न तो पोस्टर है.. न रैली.. न भाषण.. और चुनाव के दौरान पता नहीं कहीं छिप चुका है.. उसकी चर्चा तक नहीं है..

चुनाव, प्रजातंत्र को जबावदेह बनाने का एकमात्र तरीका है. एक सरकार जो दस साल चली. इस दौरान एक से बढ़कर एक शर्मनाक घोटालों का पर्दाफाश हुआ. मंहगाई ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए. प्रजातंत्रिक संस्थानों को कांग्रेस ने चौपट कर दिया. देश के मुसलमानों के साथ अभूतपुर्व धोखा हुआ. आजाद भारत में सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की. विदेशी कंपनियों को देश लूटने का खुला निमंत्रण दिया गया. क्वात्रोची जैसे अपराधियों को छूट दी गई. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख खत्म हो गई. बंग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों ने धमकाना शुरु कर दिया. आदि आदि.. जैसे मुद्दे भुला दिए गए हैं. लोगों को अब तो ये भी याद नहीं रहा कि देश में कहां कहां बम धमाके हुए या पाकिस्तानियों ने देश के जंबाज सैनिकों के सिर काट कर ले गए.. चुनाव के समय मीडिया का काम यह काम है कि इन मुद्दों को लोगों को याद दिलाए. ताकि लोग सरकार की जबावदेही तय कर सके. मीडिया ने इन मुद्दों पर चुप्पी साध ली है. एकतरह से, क्लीन चिट दे रही है.

मीडिया जिन मुद्दों को उठा रही है उसे जनता को कोई मतलब नहीं है. जैसे, हर हर मोदी का विवाद.. इस नारे के होने या न होने से क्या मंहगाई खत्म हो जाएगी या बेरोजगारी खत्म हो जाएगी. पार्टियां नारा देने के लिए स्वतंत्र है.. जनता को पसंद नहीं आया तो वोट नहीं देगी. मीडिया को इसे लेकर चिंता करना अनावश्यक है. और ये विवादित शंकराचार्य कहां से अवतरित हो गए. क्या शंकराचार्य का यही काम है कि एएनआई के एक रिपोर्टर को बुलाकर ये बताए कि किस पार्टी का नारा सही है या गलत. कुछ दिन पहले इसी शंकराचार्य से एक रिपोर्टर ने मोदी के बारे में सवाल किया था. तो शंकराचार्य का साधुत्व छुमंतर.. बिजली की स्पीड में कूद कर रिपोर्टर को चांटा मार दिया था. वैसे शंकराचार्य जी के इतिहास का पूरा एक्सरे सोशल मीडिया पर हो चुका है और वो अब मशहूर हो चुके हैं.

मीडिया एक और मुद्दे पर छाती पीट रही है कि बीजेपी में वृद्ध नेताओं का अपमान हो रहा है. लेकिन आश्चर्य तब होता है जब न्यूज चैनल बताते हैं कि जसवंत सिह की सीट काट दी गई. सवाल ये है कि बाड़मेर क्या जसवंत सिंह की सीट है? वो तो दार्जलिंग के सासंद है. वो भी ऐसे सांसद जो चुनाव जीतने के बाद एक बार भी दार्जलिंग नहीं गए. जसवंत सिंह भाग कर बाड़मेर पहुंचे हैं क्योंकि दार्जलिंग से वह नहीं जीत सकते और बीजेपी का दूसरा कोई उम्मीदवार जीत न सके ये सुनिश्चित कर चुके हैं. आडवाणी, जसवंत सिहं, लालमुणि चौबे या हरेण पाठक को टिकट मिले या न मिले ये तो वो पार्टी तय करेगी जिसके वो सदस्य हैं. क्या इन्हें टिकट मिल जाने से लोगों के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे?
मीडिया का काम सरकार के काम काज का लेखा जोखा ले.. और विपक्ष की नीतियों का विश्लेषण करे ताकि जनता वर्तमान सरकार की जबावदेही तय हो सके.. साथ यह भी तय हो सके कि क्या विपक्ष पहले से बेहतर सरकार देने में सक्षम है.. समस्याओं को हल निकालने में सक्षम है.. तभी देश में प्रजातंत्र मजबूत होगा.

(स्रोत-एफबी)

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