उत्तराखंड में सत्ता में जो भी आए,सबसे पहले मीडिया में घुसे दलालों की छानबीन करे

कोई भी राजनीतिक पार्टी सत्ता में आए, सबसे पहले मीडिया में घुसे दलालों की छानबीन करे। सबसे ज्यादा बर्बाद उत्तराखंड को मीडिया ने किया है। बहुत खेद के साथ कहना पड रहा है कि कुछ बडे कहे जाने वाले मीडिया घरानों ने भी उत्तराखंड को तहस नहस करने की कसम खाई है।

देहरादून आकर नेता की चाटुकारिता करना नौकरशाहों के सामने गिडगिडाना फिर पैसा बटोरना और मालिक को खुश करना उनका एकमात्र मकसद रह गया है। पत्रकारों के बजाय बडे दलालों को पत्रकार बनाकर और बडी पोस्ट देकर यहां भेजा हुआ है।

अखबारों की कटिंग उठाइए। खबरों पर गौर कीजिए। किस तरह की खबरे लिखी गई है। जरा दस साल पुराने अखबारों में चुनाव की खबरें विश्लेषण, इंटरव्यू पढ़िए आपको स्पष्ट अंतर दिखेगा। पूरा चुनाव बीता पत्रकारिता का इतना उजाला फैल रहा कि एक भी एक्सक्लूसिव स्टोरी नहीं। एक भी झकझोरती खबर नही ।

कुछ नहीं इन बड़े पदों पर सुशोभित पत्रकारो के पत्रकारिय अनुभव, पिछले कामकाज, शैक्षिक योग्यता के बारे में छानबीन करें तो आप चौंक जाएंगे कि कुछ मीडिया संस्थानों के पेशेवर चालाक लोगों किस तरह के लोग देहरादन में पत्रकारिता करने के लिए भेजे हैं।

जाहिर है ये लोग यहाँ पत्रकारिता के लिए नहीं उगाई के लिए भेजे हुए हैं। क्या संस्थान यह कहने के हालत में है कि उसने किस प्रखर योग्यता के तहत किसी को अपना स्टेट ब्यूरो चीफ बनाया हुआ है या न्यूज डेस्क इंचार्ज बनाया हुआ है। जो आदमी अखबार में पांच लाइन लिखने के काबिल नहीं उसे स्थानीय संपादक किस योग्यता से बनाया हुआ है। सवाल उठने जरूरी है। जिस उत्तराखंड राज्य के लिए 47 लोग शहीद वहां मीडिया संस्थान से सवाल पूछा जाना चाहिए। क्या इस व्यंग को सहने के लिए लोग शहीद हुए हैं। क्या ये पत्रकारिता करने आए हैं या कोई उगाई क्लब के सदस्य हैं। क्यो उत्तराखंड के  गरीब लोगों के पसीने की कमाई मीडिया को मालामाल कर रही है। आखिर मूंगफली गुड बेचने और अखबार बेचने में कुछ फर्क था। इस फर्क को क्यो भुलाया जा रहा।

एक एक लाख का वेतन पाने वाले स्थानीय संपादक की चुनाव पर कहीं कोई टिप्पणी नही विशेलषण नहीं। जो छुट्टी का आवेदन पत्र भी ठीक से नहीं लिख पाते उनसे राजनीतिक समीक्षा की क्या अपेक्षा करेंगे।  जिस योग्यता के साथ हैं उनसे अपेक्षा भी नहीं है। केवल कुछ नाम भर के पत्रकार हैं जो पत्रकारिता के मूल्यो को बचाए हुए हैं। लोग उन पर ही विशवास भी कर रहे हैं। जिस तरह सरकारी विज्ञापन दिए गए हैं और विज्ञापन रेट को लेकर जो काली कमाई हुई है उसकी छानबीन बहुत जरूरी है। पहाड को रौंद डाला है दलाल पत्रकारिता ने। 

बडे चालाक दल्ले ने छोटे दल्लों को देहरादून भेजकर उत्तराखंड को तहस नहस करने की ठानी है। उत्तराखंड के लोग मीडिया को जवाबदार नहीं बनाएंगे तो ये मुल्क पूरा बर्बाद हो जाएगा। फिर भले सरकार किसी की भी बने। जो मीडिया घराने करो़ड़ो रुपए इस राज्य से ले रहे हैं तमाम सुविधाएं ले रहे हैं , उनका उनके क्या सरोकार क्या होने चाहिए। क्या यही कि वो नेताओं के ही पास मंडराएं। बडे मीडिया घराने बताए कि चुनाव में उनके ब्यूरो के कितने लोग दूर दराज के गांवों में गए। वहां के हालातों पर विश्लेषण और टिप्पणी लिख कर लाए । क्या नेताओं के बयानों को बार बार  लिखना और काली कमाई की जुगत में रहना ही पत्रकारिता है और ब्लागरो में एक त्यागी है।

पहाड के आठ लडको को नौकरी पर रखा है। वेतन में केवल चाय समोसा। सरकार से एक लाख रुपए से ज्यादा उठाता है। मुजफ्फ्रनगर कहीं आसपस से इस प्रदेश को लूटने के लिए आया है। और नेता नौकरशाह लुटने दे रहे हैं। लोगों को अब आगे आना चाहिए। मीडिया को जवाबदेह बनाना होगा । मीडिया के घोर दुरप्रयोग को रोकना बहुत जरूरी है। वरना सरकार कितनी भी बदले, मीडिया में घुसे दलाल इस प्रदेश को तबाह करते रहेंगे। पूर्व सैनिक युवा शक्ति सबको आगे आकर मीडिया को जिम्मेदार बनाना होगा। मीडया अपने को भगवान न माने। सत्ता में बिठाने और गिराने वाली शक्ति न माने। खासकर तब जबकि सोशल मीडिया में युवा पीढी सजग है।

वेद उनियाल,वरिष्ठ पत्रकार –

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