मलाला को मीडिया ने यूं ही चर्चित बना दिया, लेकिन तालिबान ने हमला कर उसे ख़ास बना दिया

मलाला को मीडिया ने यूं ही चर्चित बना दिया, लेकिन तालिबान ने हमला कर उसे ख़ास बना दिया
मलाला को मीडिया ने यूं ही चर्चित बना दिया, लेकिन तालिबान ने हमला कर उसे ख़ास बना दिया

बी.पी. गौतम स्वतंत्र पत्रकार

मलाला को मीडिया ने यूं ही चर्चित बना दिया, लेकिन तालिबान ने हमला कर उसे ख़ास बना दिया
मलाला को मीडिया ने यूं ही चर्चित बना दिया, लेकिन तालिबान ने हमला कर उसे ख़ास बना दिया
मलाला युसुफ़ज़ई दुनिया भर में आज साहस और शांति की प्रतीक बन चुकी है। पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत में स्थित स्वात जिले के शहर मिंगोरा में रहने वाली मलाला का जन्म 12 जुलाई 1997 को हुआ था। इस क्षेत्र में तालिबानियों का वर्ष 2007 में बर्चस्व कायम हो गया, तो तालिबानियों ने बर्बरता पूर्वक अपने नियम-कानून लोगों पर थोपने शुरू कर दिए।तालिबानियों ने कार में म्यूजिक सुनने से लेकर सड़क पर खेलने तक पर पाबंदी लगा दी। तालिबानियों ने टीवी देखने के साथ लड़कियों की शिक्षा पर भी प्रतिबंध लगा दिया, जिससे लड़कियों की शिक्षा पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा। बर्बरता की अति होने पर सेना ने वर्ष 2009 में तालिबानियों के विरुद्ध कार्रवाई शुरू की, तो समूचा इलाका युद्ध का मैदान बन गया, जिससे लोग और भी दहशत में रहने लगे।

सेना और तालिबान में हो रहे संघर्ष के दौरान मलाला की उम्र 11 वर्ष थी। छोटी सी उम्र में कक्षा- आठ की छात्रा मलाला ने “गुल मकई” नाम से डायरी लिखनी शुरू कर की, जो बीबीसी ऊर्दू की वेबसाइट पर प्रकाशित होती थी। डायरी लिखने के कारण ही मलाला चर्चा में आई। वर्ष 2009 में न्यूयार्क टाइम्स ने मलाला पर एक फिल्म बनाई। “स्वाात में तालिबान का आतंक और महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध” विषय पर बनी इस फिल्म‍ के निर्माण के दौरान मलाला कैमरे के सामने ही रोने लगी। इस फिल्म के माध्यम से मलाला की पहचान का दायरा और बढ़ गया, लेकिन तालिबानी और अधिक चिढ़ने लगे और संगठन के प्रवक्ता ने खुल कर कह दिया कि यह महिला पश्चिमी देशों के हितों के लिए काम कर रही हैं।

स्कूल से लौटते समय अक्टूबर 2012 में आतंकियों ने मलाला पर हमला किया, जिसमें वह गंभीर रूप से घायल हो गई। मलाला को उपचार के लिए ब्रिटेन ले जाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने उसका विशेष ख्याल रखा और उसे बचा लिया गया। हमले से बचने के बाद मलाला को बहादुर लड़की के रूप में पहचान मिलने लगी। उसे पुरस्कृत करने का अभियान सा चल पड़ा। मलाला इंटरनेशनल चिल्ड्रनन पीस अवार्ड (2011) के लिए नामित हुई, लेकिन 2011 में वह यह पुरस्कार नहीं जीत पाई, पर 2013 में उसे यह पुरस्कार मिल गया। इसी वर्ष मलाला को विचारों की स्वतंत्रता के लिए सखारोव पुरस्कार से स्ट्रासबर्ग में यूरोपीय संसद द्वारा सम्मानित किया। इसी वर्ष मलाला को इक्वेलिटी एंड नान डिस्क्रिमीनेशन का अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई। इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने मलाला को 2013 का मानवाधिकार सम्मान (ह्यूमन राइट अवॉर्ड) देने की घोषणा की। यह सम्मान मानवाधिकार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वालों को प्रत्येक पांच वर्ष बाद दिया जाता है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह पुरस्कार अब तक पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर, एमनेस्टी इंटरनैशनल और नेल्सन मंडेला सहित कुल पांच लोगों को ही मिला है। तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार झटकने वाली मलाला ने भारतीय समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी के साथ शांति का नोबेल पुरस्कार भी झटक लिया है, जो 10 दिसंबर 2014 को प्रदान किया जायेगा।

मलाला के बयानों की बात करें, तो 19 दिसम्बर 2011 को पाकिस्तानी सरकार द्वारा राष्ट्रीय शांति पुरस्कार दिए जाने के बाद मलाला ने मीडिया के सामने कहा कि उसका इरादा शिक्षा पर केन्द्रित एक राजनीतिक दल बनाने का है, जबकि इससे पहले उसने कहा था कि उसका चिकित्सक बनने का सपना था। इसके बाद एक साक्षात्कार में मलाला ने कहा कि वह पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनना चाहती है और साथ में यह भी जोड़ा कि वह प्रधानमंत्री के रूप में पूरे देश की चिकित्सक बन सकती है, वह प्रधानमंत्री के तौर पर बजट से शिक्षा पर अधिक फंड खर्च कर सकती है और विदेशी मामलों को भी देख सकती है। हमले को लेकर मलाला ने कहा कि तालिबान मेरे शरीर को गोली मार सकता है, लेकिन वह मेरे सपनों को नहीं मार सकता। उसने कहा कि तालिबान ने उसे मारने और चुप कराने की कोशिश कर के अपनी सबसे बड़ी गलती की है। तालिबानियों ने सुनिश्चित कर दिया कि मौत भी मेरा समर्थन कर रही है, मौत भी मुझे नहीं मारना चाहती और अब मुझे मरने से डर नहीं लगता, पहले मुझे मौत से डर जरूर लगता होगा, लेकिन अब मुझे मौत का भय कतई नहीं है।

हाल ही में दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार नोबेल के लिए चुने जाने की खबर पर मलाला ने प्रतिक्रिया दी कि पुरस्कार के समय उसकी परीक्षा है, जिसको लेकर वह चिंतित है। मलाला आज यश और कीर्ति के शिखर पर विराजमान नजर आ रही है। पहली नजर में मलाला भाग्यशाली ही नजर आती है, क्योंकि अभी तक मलाला ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिसके चलते मलाला को दुनिया भर में मिल रहे सम्मान का हकदार माना जाये। मलाला के कार्यों पर नजर डालें, तो उसका उल्लेखनीय व साहसिक कार्य डायरी ही है, जिसे भले ही बीबीसी ने उजागर किया, पर संपूर्ण मीडिया ने भरपूर तवज्जो दी, लेकिन तवज्जो देने लायक डायरी में कुछ है नहीं, क्योंकि मलाला ने जो कुछ भी डायरी में लिखा है, उससे कहीं अधिक बर्बरता के लिए तालिबानी पहले से ही दुनिया भर में कुख्यात हैं। वे कट्टरपंथी हैं और अपने फतवे जारी करते हैं, साथ ही फतवे लागू करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं, यह भी दुनिया भर के लोग पहले से ही जानते हैं और दुनिया भर का मीडिया तालिबानियों के कुकृत्य पर निरंतर लिखता भी रहता है। मलाला की डायरी मीडिया की रिपोर्ट से ज्यादा तथ्यपरक नहीं कही जा सकती। असलियत में दुनिया भर में माहौल कट्टरपंथियों के विरुद्ध है। मलाला की डायरी तालिबानियों के विरुद्ध लिखने का मीडिया के लिए एक माध्यम बन गई। तालिबानियों के विरुद्ध तमाम खबरें रहती हैं, लेकिन मीडिया ने मलाला के शब्दों को पीड़ित और साहसी लड़की के रूप में पेश किया, जिस पर दुनिया भर के लोगों की नजर तत्काल चली गई, जबकि डायरी में ऐसा कुछ था नहीं।

मलाला के साहस की बात करें, तो उसकी डायरी में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं है कि उसने कुछ किया हो। उसने सोचा और महसूस किया, जिसे लिख दिया और बीबीसी ने अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया। मलाला ने अपनी एक भी सहेली को स्कूल आने के लिए प्रेरित नहीं किया। मलाला ने किसी अभिवावक से बात नहीं की। तालिबानियों को भी किसी तरह की कोई चुनौती नहीं दी। सोचने और महसूस करने भर से आज वह दुनिया में साहसी लड़की के रूप में पहचान बना चुकी है। डायरी भी उसने नाम और पते के साथ नहीं लिखी थी। काल्पनिक “गुल मकई” नाम से उसने डायरी लिखी, जिसके बारे में तालिबानियों को कुछ पता नहीं था। पहचान खुलने और पकड़े जाने का कोई खतरा न हो, तो कुछ भी लिख देने में भी कौन सा साहस है? ध्यान देने की बात है कि मलाला ने सिर्फ सोचा, महसूस किया और लिखा, लेकिन लिखा काल्पनिक नाम से। मौके पर उसने कुछ नहीं किया। काल्पनिक नाम से ही मलाला ने अन्य लड़कियों के घर खत भी भेजे होते और उन खतों में लड़कियों को स्कूल भेजने की अपील की होती, तो भी बड़ा कार्य माना जा सकता था।

मलाला को मीडिया ने यूं ही चर्चित बना दिया, लेकिन तालिबान ने हमला कर उसे ख़ास बना दिया। चूँकि मीडिया मलाला को कुछ ज्यादा ही तवज्जो देता रहा है, इसलिए उसे पुरस्कृत करने का एक सिलसिला चल पड़ा, जो नोबेल तक जा पहुंचा है। कुछ बच्चे जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा और और तीव्र बुद्धि के स्वामी होते हैं, ऐसी ही लड़की मलाला कही जा सकती है, लेकिन प्रतिभा और बुद्धि उम्र के अनुसार ही रहती है, जो उम्र के साथ निरंतर बढ़ती रहती है। इस दृष्टि से छोटी उम्र में मलाला का काल्पनिक नाम से डायरी लिखना और उसे बीबीसी में प्रकाशित करा देना सहज नहीं लगता। तालिबानी स्कूल बंद कराने आये होते और मौके पर मलाला तालिबानियों से भिड़ गई होती, तो साहस की बात होती। एक बार में कुछ भी देख, सुन और पढ़ कर याद कर लेती, तो इसे विलक्षणता कह सकते थे, साथ ही हाजिर जवाबी को बुद्धिमत्ता का प्रमाण माना जा सकता था। एक बालक कितना भी बड़ा प्रतिभाशाली और बुद्धिमान क्यूं न हो, पर वह वो सब नहीं कर सकता, जो उसके आयु वर्ग की समझ से परे हो, साथ ही प्रतिभाशाली और बुद्धिमान होना अलग बात है और चालाक होना अलग बात है। काल्पनिक नाम से डायरी लिख कर प्रकाशित कराना प्रतिभा और बुद्धिमानी नहीं, बल्कि चालाकी का कार्य है।

मलाला के बारे में बताया जाता है कि उसने “गुल मकई” नाम से डायरी लिखी, तो “गुल मकई” नाम के मायने “गमजद” होता है, जो गंभीर बात है। काल्पनिक नाम से लिखना जितनी बड़ी बात है, उससे कहीं बड़ी बात है अर्थ पूर्ण नाम से लिखना, इस तरह की चालाकी मलाला जितनी आयु में कर पाना किसी भी बच्चे के लिए संभव नहीं है, ऐसे में अधिक संभावना यही है कि किसी परिपक्व दिमाग के व्यक्ति ने सोच-समझ कर यह सब मलाला के नाम से किया है, अथवा मलाला से कराया है। कम उम्र और लड़की होने के कारण ही मीडिया व दुनिया भर के लोगों ने मलाला को गंभीरता से लिया। मलाला युसूफजई के पिता जिआउद्दीन युसूफजई एक स्कूल चलाते थे, इसलिए ज्यादा संभावना यही है कि मलाला को “गुल मकई” बना कर उन्होंने ने ही डायरी लिखाई हो और फिर उसे प्रकाशित कराया हो। मलाला आज यश-कीर्ति के शिखर पर विराजमान है, वहीं उसके पिता जिआउद्दीन युसूफजई को पाकिस्तान के बर्मिंघम स्थित मिशन में नौकरी दे दी गई है, उन्हें तीन वर्ष के लिए मिशन प्रमुख के अंतर्गत शिक्षा विभाग का प्रमुख नियुक्त किया गया है, साथ ही पूरे परिवार की विशेष सुरक्षा के साथ संपूर्ण खर्च पाकिस्तान सरकार दे रही है। जिआउद्दीन युसूफजई ने तालिबानी बर्चस्व खत्म होने के बाद वर्ष 2009 के दिसंबर महीने में खुलासा किया कि उनकी बेटी मलाला युसुफजई ही “गुल मकई” है। यहाँ सवाल यह भी उठता है कि तालिबानी शासन पूरी तरह कायम हो जाता, तो क्या कभी पता नहीं चलता कि “गुल मकई” कौन है? पता चल भी जाता और चल भी गया, तो भी मलाला ने “गुल मकई” बनने के अलावा और कुछ नहीं किया है। उसकी प्रेरणा से एक लड़की स्कूल नहीं गई और न ही ऐसा कोई उसका उद्देश्य था। वह स्वयं पढ़ना चाहती थी, स्कूल जाना चाहती थी, पर उस पर तालिबानियों के फतवे का खौफ था। डर उसके अंदर बैठ गया, क्योंकि हमले से पहले उसका सामना कभी तालिबानियों से नहीं हुआ। उसके स्कूल में भी ऐसी कोई घटना नहीं हुई, फिर भी उसका डर जायज कहा जा सकता है, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर न उसने कुछ देखा और न ही उसने कुछ किया। सिर्फ एक डायरी लिखने भर से उसे साहसी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रचारित कर दिया गया, जबकि पाकिस्तान में भी ऐसी हजारों लड़कियां होंगी, जो स्कूल जाना चाहती हैं। स्कूल जाने भर की इच्छा को लेकर जो सम्मान मलाला को दिया जा रहा है, वह उन सभी लड़कियों को भी मिलना चाहिए। नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना के बाद उसने अपनी परीक्षाओं को लेकर चिंता तो जताई, लेकिन उसने यह नहीं कहा कि वह मंच पर स्वयं पुरस्कार लेने नहीं जायेगी और परीक्षा ही देगी। वह अगर, ऐसा कहती और आने वालों दिनों में ऐसा ही करती, तो उसका बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ता। बच्चों में ही नहीं, बल्कि बड़ों में भी यह सन्देश जाता कि शिक्षा के लिए मलाला समारोह में नहीं गई, जबकि मलाला यही सन्देश देने की बात भी करती है, पर अफ़सोस कि मुख्य उद्देश्य शिक्षा या सामाजिक परिवर्तन नहीं, बल्कि स्वयं की यश-कीर्ति ही है।

कुल मिला कर फिल्म निर्माता अभिनेता को जैसे एक विशेष छवि दे देते हैं, वैसे ही मलाला को उसके पिता ने इरादे से यह छवि प्रदान की है, जिसे आज दुनिया देख रही है। मलाला का वास्तविक उद्देश्य परिवर्तन ही होता, तो वह आज 21वीं सदी की पीढ़ी जैसा व्यवहार कर रही होती। 21वीं सदी के बच्चों के लिबास में नजर आ रही होती, जबकि वह आज भी सिर पर पल्ला लिए ही नजर आती है। मलाला के सिर का पल्ला स्पष्ट संकेत देता है कि लड़कियों को पर्दे में रहना चाहिए और वह इसके पक्ष में है। आज मलाला और उसके परिवार के सामने आजीविका का कोई संकट नहीं है। तालिबानियों का भी कोई

बी.पी.गौतम
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भय नहीं है, ऐसे में जमीन पर काम करने की जगह वह आज भी बयानबाजी तक ही सीमित है। अब ऐसी उम्मीद कम ही है कि वह जमीन पर उतर कर पकिस्तान में कोई बड़ा आंदोलन चलायेगी और आमने-सामने तालिबानियों से लड़ेगी। तालिबानियों के विरुद्ध लिखने के लिए मीडिया को एक माध्यम चाहिए, जो मलाला आसानी से बन गई और ऐसी बनी कि मीडिया ने उसे विश्व पटल पर स्थापित कर नोबेल तक दिला दिया। मलाला ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि जमीन पर काम करने की जगह ब्रांडिंग से भी सफल हुआ जा सकता है। मलाला साहसी और शांति पसंद सामाजिक कार्यकर्ता हो या न हो, पर वह आज सफल जरूर है।

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