मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी

मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी
मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी
मैगी,मीडिया और एप्को पीआर एजेंसी के क्लाईंट नरेन्द्र मोदी
विनीत कुमार, मीडिया विश्लेषक
विनीत कुमार, मीडिया विश्लेषक

अपने बेहद लोकप्रिय उत्पाद मैगी के प्रतिबंधित किए जाने और चौतरफा हो रही बदनामी से उबरने के लिए नेस्ले कंपनी अब अमेरिका की पीआर एजेंसी एप्को की शरण में जा पहुंची है। उत्पाद की जांच पर खर्च करने के मुकाबले लगभग सौ गुना ज्यादा विज्ञापन और मार्केटिंग पर खर्च करने वाली नेस्ले कंपनी (साल 2014 में चार सौ पैंतालीस करोड़ रुपए विज्ञापन और प्रोमोशन पर खर्च, जबकि जांच पर इसका मात्र पांच फीसद खर्च) को यह उम्मीद दिखाई दे रही है कि एप्को पीआर एजेंसी उसे इस बदनामी से उबार लेगी और जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा। साल-दर-साल नेस्ले के अपने उत्पाद की गुणवत्ता की जांच और विज्ञापन-प्रोमोशन पर किए जाने वाले उसके खर्च के अनुपात का अंतर तेजी से बढ़ रहा है और अब तो रिब्रांडिंग के लिए दुनिया की सबसे महंगी पीआर एजेंसी का खर्च उठाने के लिए भी कंपनी तैयार है।

नेस्ले कंपनी का न्यायिक प्रक्रिया के तहत होने वाली जांच और ग्राहकों के हितों की रक्षा की अपेक्षा एप्को जैसी पीआर एजेंसी के प्रति आस्था और फुर्ती दिखाना अकारण नहीं है। उसे पता है कि जो पीआर एजेंसी साल 2002 के गुजरात जनसंहार के कारण दुनिया भर में हुई नरेंद्र मोदी और उनकी गुजरात सरकार की चौतरफा आलोचना से उन्हें उबार ले गई और अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षित राज्य जैसे गुजरात के सच को पीछे धकेल कर निवेशकों के लिए सबसे बेहतर राज्य की उसकी छवि निर्मित की, उसके आगे मैगी को लेकर एफएसएसएआइ (फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया- भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण) के फैसले को बदलना बहुत मुश्किल नहीं है।

दूसरा यह कि जिस मीडिया ने अपनी रिपोर्टों, लगातार फीचर और खबरों के जरिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की एक ऐसी छवि दुनिया के आगे पेश की कि सत्ता में बने रहने की बात तो दूर, सामान्य नागरिक जीवन तक जीना मुश्किल हो जाता, ‘बाइब्रेंट गुजरात’ नामक कार्यक्रम के जरिए यह एजेंसी प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे सुयोग्य उम्मीदवार की उनकी छवि गढ़ने में कामयाब रही तो इसके आगे मैगी का मामला अपेक्षाकृत मामूली है। गुजरात सरकार की तरह अगर नेस्ले भी एक महीने में पंद्रह हजार डॉलर जैसी मोटी रकम खर्च करने को तैयार है तो फिर मुश्किल क्या है? रही बात मौजूदा परिस्थिति में मैगी को लेकर मीडिया के नकारात्मक रवैये की, तो एप्को के हाथ में यह मामला आते ही एक के बाद एक सकारात्मक रिपोर्ट और फीचर से छवि निर्मित करने में बहुत वक्त नहीं लगेगा।

एप्को ने अपनी वेबसाइट पर गुजरात बाइब्रेंट सहित क्लिंग्टन ग्लोबल इनीशिएटिव, गवर्नमेंट आॅफ शारजाह, वॉलमार्ट चाइना और जॉनसन ऐंड जॉनसन के मामले में किस तरह मीडिया को अपने क्लाइंट (ग्राहक) के पक्ष में किया और जिन माध्यमों को हम खास आस्था से देखते आए हैं, उन्हें अपने एजेंडे में शामिल किया, यह सब विस्तार से अपलोड किया है। मीडिया से जुड़ी नैतिकता के लिहाज से यह भले ही पेड न्यूज या प्रोपेगेंडा का मामला हो लेकिन एप्को के लिए यह बड़ी उपलब्धि है।

इस लिहाज से मैगी और एप्को की व्यावसायिक यारी को देखें तो जिस पीआर एजेंसी के क्लाइंट स्वयं तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी रहे हों, ऐसे में कोर्ट-कानून-कचहरी के समांतर नेस्ले को एक दूसरी सत्ता तो हासिल हो ही जाती है। एक ही पीआर एजेंसी के क्लाइंट, दूसरे क्लाइंट को अमूमन परेशान नहीं करते बल्कि रास्ता बनाते हैं।

यह बात हमने 2011 में नीरा राडिया टेप मामले में वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशन जैसी पीआर एजेंसी, रिलायंस इंडस्ट्रीज और टाटा कम्युनिकेशन सहित मीडिया के कई दिग्गज चेहरों और सरकार के नुमाइंदों के रवैये के खुल कर सामने आने के दौरान देख चुके हैं। इस हिसाब से मौजूदा सरकार और नेस्ले कंपनी के बीच भी एक रिश्तेदारी तो बनती ही है।

इधर ऐतिहासिक संदर्भ के लिहाज से देखें तो जिस तरह आज मैगी ने अपनी बदनामी से बचने के लिए दुनिया की सबसे ताकतवर और भरोसेमंद पीआर एजेंसी की शरण ली है, जिसके साथ होने का मतलब है सरकार और मुख्यधारा मीडिया को अपने पक्ष में कर लेने की भरपूर संभावना, आज से करीब तीस साल पहले जब मैगी को गिनती के लोग जानते थे, घर-घर तक पहुंचने के लिए ठीक इसी तरह के विश्वसनीय माध्यम दूरदर्शन का दामन थाम कर वह लोकप्रिय हुआ था।

अभी मैगी विवाद के बाद नेस्ले इंडिया के प्रमुख ए हेलियो वाज्यॉक और प्रबंध निदेशक इटिनी बेनेट ने जो पत्र जारी करते हुए लिखा है, वह दरअसल 1983-84 की उसी दूररर्शन नीति और दर्शकों के बीच बनी पकड़ का अपने पक्ष में इस्तेमाल है जिसे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत विकसित किया। यहां तक कि उत्पाद में सीसे की मौजूदगी की बात कहे जाने के बावजूद कुछ ग्राहक अगर नास्टैल्जिक हो रहे हैं तो इसमें सिर्फ बत्तीस साल की मैगी का ही नहीं, दूरदर्शन नॉस्टैल्जिया भी शामिल है। इन्होंने पत्र में जब लिखा कि भारत बुरी तरह से कुपोषण का शिकार रहा है और ऐसे में नेस्ले ने मुनाफे के गणित से हट कर लगातार इस पर शोध और सुधार का काम किया है, इसका साफ मतलब है कि वे दूरदर्शन की ब्रांड छवि को अब भी अपने उत्पाद के साथ नत्थी कर रहे हैं।

लेकिन यह कम दिलचस्प नहीं है कि सन 1983 में जब तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सचिव एसएस गिल ने मनोहरश्याम जोशी को ‘हमलोग’ नाम से देश के पहले टीवी धारावाहिक की रूपरेखा तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी तो लगभग यही बात दोहराई थी। वे दूरदर्शन के माध्यम से देश के लोगों के बीच ऐसे संदेश का प्रसारण करना चाहते थे जिससे कि देश की आम आबादी जनसंख्या नियंत्रण के महत्त्व को समझ सके, कुपोषण और गरीबी से काफी हद तक बचा जा सके। इनके बीच विशुद्ध सामाजिक उद््देश्य से प्रसारित होने वाले इस धारावाहिक का प्रायोजक बना नेस्ले और उसका उत्पाद मैगी।

यानी कार्यक्रम के स्तर पर जो सामाजिक जागरूकता का संदेश हमलोग धारावाहिक प्रसारित कर रहा था, उत्पाद के स्तर पर यही काम मैगी कर रहा था, ऐसा दावा नेस्ले की ओर से किया गया है। दूरदर्शन का यह वह दौर रहा जब बिल्बर श्रैम मॉडल को अपनाते हुए टेलीविजन पर प्रसारित होने वाली सारी सामग्री को सामाजिक जागरूकता और सरोकार के तहत व्याख्यायित किया जाना अनिवार्य था। लेकिन कार्यक्रम और प्रायोजक की इस जुगलबंदी से क्या दर्शकों के बीच सचमुच एक ही अर्थ संप्रेषित हो रहा था?

हमलोग में दिल्ली के मध्यवर्ग से छीज-छिटक कर निम्न मध्यवर्ग पर जा अटका बसेसर राम का तीन पीढ़ियों का एक ऐसा परिवार है जिसके घर में दो मिनट में मैगी क्या, दो घंटे तक चीनी-चाय पत्ती तक का प्रबंध नहीं हो पाता है। घोर अभावग्रस्त इस परिवार में सबके सब बेरोजगार हैं या छिपी हुई बेरोजगारी से ग्रस्त हैं, लेकिन इस कार्यक्रम के दौरान मैगी एक ऐसा उत्पाद दर्शकों के बीच पेश किया जाता है जिसमें समय की भारी किल्लत के बीच दो मिनट के भीतर पेट भरा जा सके।

हमलोग की कहानी, उसके चरित्रों और मैगी के विज्ञापन, कॉपी और उनमें शामिल लोगों को एक साथ रख कर देखें तो हिंदुस्तान की वह एक दुनिया नहीं है जिसके दावे के साथ दूरदर्शन सालों से काम करता आया है। सरोकार और जागरूकता के नाम पर एक तरह से कार्यक्रम की शक्ल में देश की गरीबी, बेरोजगारी और पारिवारिक कलहों को नागरिक/दर्शक के रूप में बेचा जाता है, जबकि विज्ञापन के जरिए उन्हीं नागरिकों-दर्शकों को उपभोक्ता बनाने की लगातार कोशिश की जाती है। दूरदर्शन की विषयवस्तु में निम्न मध्यवर्ग है जबकि विज्ञापन के जरिए मध्यवर्ग के उभार की आकांक्षा व्यक्त की जाती रही। ऐसे में हमलोग के सफल-असफल होने की चिंता प्रायोजक को भी उतनी ही रही है जितनी कि जागरूकता के संदेश पहुंचने की चिंता दूरदर्शन और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी करते आए हैं। यह बात स्वयं हमलोग के लेखक मनोहरश्याम जोशी ने कही थी।

कार्यक्रम के जरिए सामाजिक जागरूकता और दर्जनों उत्पादों के जरिए कुपोषण से कथित मुक्ति की यह कहानी आगे रजनी, शांति, स्वाभिमान, जुनून जैसे धारावाहिकों तक लगातार दोहराई जाती है। स्वाभिमान, जुनून जैसे कार्यक्रमों के आखिरी दौर में दर्शकों की ओर से बुरी तरह नकार दिए जाने के बावजूद इन्हें जारी रखा गया क्योंकि विज्ञापनदाताओं ने अभी तक हाथ नहीं खींचे थे और दूरदर्शन को इनसे घाटे की भरपाई हो रही थी। यानी दूरदर्शन सरोकार के रास्ते चल कर अर्थशास्त्र की उस जमीन पर भटक रहा था जहां मैगी, फेयर ऐंड लवली, कॉम्प्लान जैसे दर्जनों उत्पादों के विज्ञापन अपनी आकांक्षा का मध्यवर्ग तैयार करने में जुटे थे।

कहा जा सकता है कि इन उत्पादों के दावों के झूठे पड़ने के साथ-साथ दूरदर्शन अपने दर्शकों के साथ पहले ही छल कर चुका है। और तब यह सवाल बहुत पीछे छूट जाता है कि इन सबके बीच स्वयं माध्यम कितना विश्वसनीय रह गया या फिर प्रायोजकों ने माध्यम की विश्वसनीयता के साथ क्या किया? यही सवाल अब पीआर एजेंसी के संदर्भ में भी है। एप्को जिस बहादुरी से गुजरात बाइब्रेंट-2007 की सफलता की फाइल अपनी वेबसाइट पर सजाए हुए है, उतनी ही शालीनता से इस बात का जिक्र कर सकेगा कि साल 2013 में उसने किस करिश्मे के तहत नरेंद्र मोदी और उनकी टीम को एक दिन के भीतर उत्तराखंड भूस्खलन में फंसे लोगों को न केवल बाहर निकालते हुए बल्कि सुरक्षित वापस गुजरात भेजते हुए बता दिया? एक पीआर एजेंसी के तौर पर आखिर एप्को ने ऐसी कौन-सी मशीनरी विकसित कर ली कि जहां सेना के जवान पैदल तक नहीं पहुंच सकते वहां दनादन एनोवा गाड़ी पहुंच गई। ऐसी कौन-सी प्रणाली विकसित कर ली कि तुरंत गुजराती और गैर-गुजराती की पहचान भी हो गई?

(प्रचार का गोरखधंधाः मूलतः प्रकाशित जनसत्ता, 15 जून 2015)

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