साहित्य के आसाराम की कहानी ज्योति कुमारी के जरिए : भाग-2

आशीष कुमार अंशु

राजेंद्र यादव साहित्यकार या ....!
राजेंद्र यादव साहित्यकार या ….!
जैसा कि इस श्रृंखला के पहले अंक में लिखा गया था कि यह कहानी अधूरी है, जब तक राजेन्द्र यादव का पक्ष इसके साथ नहीं जुड़ जाता। इस संबंध में बतकही की तरफ से राजेन्द्र यादव से उनका पक्ष को जानने के उद्देश्य से फोन किया गया था, श्री यादव के अनुसार- इस संबध में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। राजेन्द्रजी का पक्ष अभी भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यदि उनका पक्ष नहीं आता तो ज्योति के बयान पर उनका यह मौन, ‘सहमति’ माने जाने का भ्रम उत्पन्न करेगा। वैसे राजेन्द्र यादव के शुभचिन्तक कह रहे हैं कि राजेन्द्र यादव ब्लॉग को गंभीर माध्यम नहीं मानते, यदि उन्हें जवाब देना होगा तो हंस के नवम्बर अंक में अपने संपादकीय के माध्यम से दंेगे। वास्तव में हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उनका पक्ष कहां आता है, किसके माध्यम से हम सबके बीच आता है। महत्वपूर्ण यह है कि उनका पक्ष सबके सामने आए। बहरहाल आशीष कुमार ‘अंशु’ से ज्योति कुमारी की बातचीत का दूसरा भाग यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस बातचीत को साक्षात्कार या रिपोर्ट कहने से अच्छा होगा कि हम बयान कहें। चूंकि पूरी बातचीत एक पक्षीय और घटना केन्द्रित है। यहां गौरतलब है कि दूसरा पक्ष जो राजेन्द्र यादव का है, उन्होंने इस विषय पर बातचीत से इंकार कर दिया है। फिर भी उनका पक्ष उनकी सहमति से कोई रखना चाहे तो स्वागत है। यदि राजेन्द्र यादव स्वयं अपनी बात रखें तो इससे बेहतर क्या होगा? :

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इन सारी घटनाओं के दौरान जब मैं थाने में बैठी थी। मेरे मित्र मज्कूर आलम के पास फोन किया जा रहा था। मज्कूर आलम उस दिन अपने घर बक्सर (बिहार) में थे। उन्हें फोन पर बताया जा रहा था- ‘ज्योति थाने में है। यह अच्छा नहीं है। उसे वापस बुला लीजिए।’

मैने सुना थाने में कई लोगों से कह कर फोन कराया गया। दबाव बनाने के लिए। यदि यह बात सच है तो दिल्ली पुलिस की सराहना की जानी चाहिए कि वे किसी के दबाव में नहीं आए।

मैं अकेली रात एक बजे तक थाने में बैठी रही। इस बीच मेरा एमएलसी (मेडिकल लीगल केस) कराया गया। मैं वहां देर रात तक इसलिए बैठी रही क्योंकि मैंने तय कर लिया था, जब तक मेरा एफआईआर (फर्स्ट इन्फॉरमेशन रिपोर्ट) नहीं हो जाता, मैं वहां से हिलूंगी नहीं। मेरे एमएलसी में आ गया कि चोट है। ईएनटी में दिखलाया, वहां कान के चोट की भी पुष्टी हो गई। एक बजे रात में एक लेडी कांस्टेबल मुझे घर तक छोड़ कर गई।

मुझे जानकारी मिली कि मेरे घर आने के थोड़ी देर बाद ही प्रमोद को छोड़ दिया गया। उसके बाद दो महीने तक केाई कार्यवायी नहीं हुई। मै अपने कान के दर्द से परेशान थी। मुझे चोट लगी थी। दो महीने तक पुलिस की तरफ से कोई कार्यवायी नहीं हुई। पुलिस की जांच पड़ताल चल रही होगी, यह अलग बात है। उन्होंने दो महीने तक एक जुलाई की घटना के लिए सीआरपीसी की धारा 164 में मेरा बयान भी नहीं कराया।

घटना के अगले दिन दो जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया मेरे पास। उन्होंने कहा -‘क्या मिल गया, पुलिस में बयान दर्ज कराके। लड़का छुट गया। लड़का घर आ गया।’

मैने जवाब दिया- ‘क्या हो गया यदि प्रमोद छुट कर आ गया। मैंने वही किया जो मुझे करना चाहिए।’

फिर राजेन्द्र यादव ने कहा- ‘अच्छा ऐसा कर शाम छह बजे मेरे घर आ जा।’

मैंने जवाब में कहा- ‘अब मैं आपके घर कभी नहीं आने वाली।’

राजेन्द्र यादव- ‘कभी नहीं आना, आज आ जा।’

ज्योतिः ‘क्यों आज ऐसा क्या खास है कि मुझे इतना कुछ हो जाने के बाद भी आपके घर आ जाना चाहिए।’

राजेन्द्र यादवः ‘मैने पुलिस वाले को कह दिया है, वकील को भी बुला लिया है। तू भी आ जा। प्रमोद भी रहेगा। वह तुझे सॉरी बोल देगा। बात खत्म हो जाएगी।’

ज्योतिः ‘उसे पब्लिकली सॉरी बोलना होगा। उसने इतनी बूरी हरकत की है मेरे साथ। तब मैं माफ करूंगी। मुझे लगता है कि जिसे वास्तव में महसूस होगा कि उसने गलती की है, वह सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा। जब कोई महसूस करता है, अपनी गलती तो उसे सार्वजनिक तौर पर गलती की माफी मांगनी चाहिए। यदि वह सार्वजनिक तौर पर माफी मांगेगा तो उसे सुधरने और अच्छा बनने का एक मौका दिया जा सकता है। उस माफी के बाद भी उसकी हरकतें नहीं बदलती तो उस पर फिर कार्यवायी होनी चाहिए लेकिन प्रमोद को एक मौका मिलना चाहिए, इस बात के मैं हक में हूं।’

राजेन्द्र यादवः ‘फिर ऐसा कर, सोनिया गांधी को बुला ले, मनमोहन सिंह को बुला ले, ओबामा को बुला ले। रामलीला मैदान में माफी मांगने का सार्वजनिक कायक्रम रख लेते हैं।’

ज्योतिः ‘आपको जो भी लगे लेकिन जब तक वह सार्वजनिक तौर पर माफी नहीं मांग लेता, मैं माफ नहीं करूंगी।’

जब मेरी और राजेन्द्र यादव की फोन पर यह बात हो रही थी, मीडिया और साहित्य में बहुत से लोगों को इस घटना की जानकारी हो चुकी थी। बहुत से लोगों के फोन आने लगे थे।

एक दिन पहले यानि एक जुलाई को जिस दिन दुर्घटना हुईं, जब मैं पुलिस के आने का इंतजार कर रही थी, उसी वक्त साहित्यिक पत्रिका पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज राजेन्द्र यादव के घर आए थे। प्रेम भारद्वाज जब भी पाखी का नया अंक आता है, उसे देने के लिए वे स्वयं हर महीने राजेन्द्र यादव के घर आते हैं। उस दिन भी वे पाखी देने ही आए थे। जब प्रेम भारद्वाज वहां पहुंचे तो उन्होंने मेरी हालत देखी। राजेन्द्र यादव ने प्रेम भारद्वाज के हाथ से पाखी लेकर बोला- ‘ठीक है, ठीक है। अब जाओ।’

मैने कहा- ‘प्रेम भारद्वाज जाएं क्यों, उन्हें भी पता चलना चाहिए, आपके घर में क्या हुआ है?

प्रेम भारद्वाज ने पूछा – ‘क्या हुआ?’

राजेन्द्र यादव का जवाब था- ‘कुछ नहीं हुआ, तुम जाओ यहां से।’

प्रेम भारद्वाज के जाने के बाद पुलिस आई। पुलिस के आने का जिक्र मैं पहले कर चुकी हूं। राजेन्द्र यादव द्वारा दिया गया, शराब पीने का ऑफर जब दिल्ली पुलिस ने ठुकरा दिया और इस बात पर भी सहमत नहीं हुए कि किसी स्त्री पर हमला छोटी बात होती है तो राजेन्द्र यादव को लगा कि यह बात उनसे अब नहीं संभलेगी। उन्होंने किशन को कहा- ‘भारत भारद्वाज को फोन मिलाओ।’

जब तक भारत भारद्वाज आए, पुलिस दरवाजे तक आ चुकी थी। भारत भारद्वाज ने आते ही कहा- ‘मैं डीआईजी हूं आईबी डिपार्टमेन्ट में। आप पहले मुझसे बात कीजिए, उसके बाद प्रमोद को लेकर जाइएगा। ’

मैने वहीं पर कहा- ‘ये रिटायर हो चुके हैं।’

मैने देखा, प्रेम भारद्वाज गए नहीं थे। वे भारत भारद्वाज के साथ लौट आए थे। हो सकता है कि वे भारत भारद्वाज के पास पत्रिका देने गए हों और राजेन्द्र यादव का फोन आ गया हो।

भारत भारद्वाज ने फिर पूछा- ‘क्या हुआ?’

मैने पूरी कहानी उन्हें बताई, यह भी बताया कि घटना के बाद मैने शिकायत की है और मेरी शिकायत पर पुलिस आई है।

भारत भारद्वाज फिर राजेन्द्र यादव के लिए, सलाह देने में व्यस्त हो गए। अनंत विजय को बुला लो, उसके एक भाई सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं। पुलिस ने भारत भारद्वाज से कहा- ‘सर आपको जो भी बात करनी है, थाने में आकर करिए।’

जब एक महिला के साथ बलात्कार होता है या फिर बलात्कार की कोशिश होती है। लड़की की इससे सिर्फ शरीर की क्षति नहीं होती। उसका मन भी टूटता है। हमले का मानसिक असर भी गहरा होता है। मेरे साथ जो हुआ, मैं उससे अभी तक बाहर निकल नहीं पाई हूं। यह अलग बात है कि मैं लड़ रही हूं। मैने हिम्मत नहीं हारी है। कानूनी रूप से जो कर सकती थी, कर रही हूं। लेकिन इस घटना का मेरे अंदर जो असर हुआ है, उसे सिर्फ मैं समझ सकती हूं। इस तरह के अपराध के लिए समझौता कभी नहीं हो सकता है। कोई ऐसे मामले में समझौता शब्द का इस्तेमाल करता है, इसका मतलब है कि वह लड़की के साथ अन्याय करता है। मैने इस अन्याय को भोगा है। इस तरह के मामले में समझौते की बात कहीं आनी नहीं चाहिए। मैं ना समझौते के लिए कभी तैयार थी, ना हूं और ना इस मामले में आने वाले समय में समझौता करूंगी। यह संभव है कि कोई गलती करता है और अंदर से इस बात को महसूस करता है और माफी मांगता है तो उसे माफ करके एक मौका दिया जा सकता है। समझौता और माफी देने में अंतर होता है। यदि मैं प्रमोद को माफ करने पर विचार कर रही हूं तो इसे समझौता बिल्कुल ना कहा जाए। यह शब्द एक पीड़ित लड़की के लिए अपमानजनक है। एक तो लड़की के साथ गलत हुआ है। लड़की ने उसे भुगता। उस पीड़ा के शारीरिक मानसिक असर से लड़की गुजरी। अब उस पीड़ा से जुझ रही लड़की से अपराधी को माफ करने के लिए कहा जा रहा है और उसे समझौता नाम दिया जा रहा है। यह ऐसा ही है जैसे किसी ने पीड़ा से गुजर रही लड़की को दो थप्पड़ और मार दिया हो। वही सारी घटनाएं फिर एक बार मेरे साथ दुहराई जा रही हों। इसलिए समझौता नहीं, प्रमोद के लिए माफी शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए। यदि उसे अपनी गलती का एहसास है तो जरूर उसे एक मौका मिलना चाहिए।

अकेला प्रमोद इस गुनाह में शामिल है या फिर कुछ और लोग भी प्रमोद के पीछे इस गुनाह में शामिल हैं। इसका सही-सही जवाब राजेन्द्र यादव दे सकते हैं। मान लीजिए प्रमोद ने किसी के बहकाने पर यह सब किया। पैसा लेकर किया। लेकिन सच यह है कि मेरे साथ अपराध प्रमोद ने किया। मेरा अपराधी प्रमोद है। उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? इसका जवाब प्रमोद दे सकता है।

सच्चाई है कि राजेन्द्र यादव ने मेरा वीडियो नहीं बनाया, मुझ पर शारीरिक हमला भी नहीं किया। फिर भी मैने हंस का बहिष्कार किया। इसके पीछे वजह यही है कि राजेन्द्र यादव स्त्री सम्मान की बात करते हैं लेकिन जब उनके सामने स्त्री सम्मान पर हमला हुआ तो वे चुप थे। प्रमोद को पहले दिन थाने से निकलवाने में राजेन्द्र यादव की अहम भूमिका रही। प्रमोद के खिलाफ एफआईआर ना हो, इसमें राजेन्द्र यादव की पूरी भूमिका रही। वह नहीं रूकवा पाए, यह अलग बात है, लेकिन उन्होंने जोर पूरा लगा लिया था। पहले दिन जब प्रमोद थाने से छुट कर आया तो उनके घर में ही था। उनके घर में वह काम करता रहा। उसकी दूसरी बार दो महीने बाद गिरफ्तारी उनके घर से ही हुई। यदि कोई लड़का आपके यहां काम करता हो तो यह बात समझ में आती है कि वह आपके नियंत्रण में ना हो और उसका अपराध आपकी जानकारी में ना हो। लेकिन जब राजेन्द्र यादव एक जुलाई की घटना के चश्मदीद हैं, सबकुछ उनकी आंखों के सामने घटा है, वे कम से कम प्रमोद से अपना रिश्ता खत्म कर सकते थे। प्रमोद उनके घर में रहा और काम करता रहा। इतना ही नहीं, उलट राजेन्द्र यादव मुझपर ही दबाव बनाते रहे कि समझौता कर लो। केस वापस ले लो। उनकी तरफ से कई लोगों के फोन आ रहे थे- ‘तुम्हारा साहित्यिक कॅरियर चौपट हो जाएगा। तुम साहित्य से बाहर हो जाओगी।’

मैं नहीं मानी।

राजेन्द्र यादव ने तरह-तरह के एसएमएस भी मेरे पास भेजे। वे साहित्यिक व्यक्ति हैं, इसलिए उनकी धमकी भी साहित्यिक भाषा में थी।

‘तुम जो कर रही हो, समझो इसमें सबसे अधिक नुक्सान किसका है?’

‘मूर्ख उसी डाल को काटता है, जिस पर बैठा होता है।’

‘तुम्हें आना तो मेरे पास ही पड़ेगा।’

यह सारे एसएमएस मेरे पास सुरक्षित हैं। 27 जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘प्रमोद माफी मांगने को तैयार है। लेकिन सार्वजनिक माफी से पहले, वहां कौन-कौन से लोग होंगे, यह तय करने के लिए हम लोग मिले। मिलकर बात करते हैं। वह मिलकर भी तुमसे माफी मांग लेगा और सार्वजनिक तौर पर भी माफी मांग लेगा। मिलने की जगह नोएडा (उत्तर प्रदेश), सेक्टर सोलह का मैक डोनाल्ड तय हुआ।

बात हुई थी माफी मांगने की लेकिन प्रमोद वहां भी मुझे धमकाने लगा। अपना केस वापस ले लो वर्ना मार के फेंक देंगे। लाश का भी पता नहीं चलेगा। किशन भी साथ दे रहा था। उस दिन मज्कूर आलम मेरे साथ थे। राजेन्द्र यादव उनके द्वारा सार्वजनिक माफी के लिए सुझाए जा रहे सारे नामों को एक-एक करके खारिज कर रहे थे। मानों घर से राजेन्द्र यादव प्रमोद के साथ सार्वजनिक माफी की बात सोचकर निकले हों और यहां आकर बदल गए हों। नामों को लेकर राजेन्द्र यादव की आपत्ति कायम थी। नहीं यह नहीं होगा। इसे क्यों बुलाएंगे। ऐसा करो कि वकील को बुला लेते हैं। बात खत्म करो।
उनका यह रूख देखकर मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा।

‘जब मैने स्पष्ट कर दिया है कि सार्वजनिक माफी से कम पर बात नहीं होगी और आपको यह स्वीकार्य नहीं है तो मिलने के लिए क्यों बुलाया?’
राजेन्द्र यादव का वहां बयान था- ‘अब मैं और तुम आमने-सामने हैं। अब प्रमोद से तुम्हारी लड़ाई नहीं है। यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो अब तुम्हारी लड़ाई मुझसे है।’

इस घटना से पहले मैं राजेन्द्र यादव को ई मेल पर हंस और राजेन्द्र यादव के बहिष्कार की सूचना दे दी थी। उन्होंने हंस के अंक में मेरी कहानी की घोषणा की थी। मैने कहानी देने से मना कर दिया। मैं ऐसी पत्रिका को कहानी नहीं दे सकती, जिसका दोहरा चरित्र हो। मेरे ई मेल भेजे जाने के बाद भी उन्होंने मेरी समीक्षा छाप दी। (यह बातचीत हंस, अक्टूबर 2013 अंक आने से पहले हो चुकी थी, उस वक्त हंस में ‘समीक्षा’ के लिए राजेन्द्र यादव की माफी नहीं छपी थी) मैने जो ई मेल राजेन्द्र यादव को भेजा था, उसमें साफ शब्दों में लिख दिया था कि मेरा निर्णय समीक्षा पर भी लागू होता है। इसके बावजूद उन्होंने समीक्षा छाप दी। समीक्षा छापने के बाद उन्होंने मुझे सूचना भी नहीं दी। मेरी लेखकीय प्रति अब तक मेरे पास नहीं आई।

मेरे पास एक परिचित का फोन आया, तुमने हंस का बहिष्कार किया है और तुम्हारी समीक्षा हंस में छपी है। यह फोन आने के बाद मैने राजेन्द्र यादव को फोन किया। उनकी पत्रिका 20-21 से पहले कभी प्रेस में नहीं जाती है लेकिन राजेन्द्र यादव ने कहा- इस बार पत्रिका 18 को ही प्रेस में चली गई। इसलिए समीक्षा रोक नहीं पाए। मैने कहा- आप अगले अंक में छाप दीजिएगा कि समीक्षा कैसे छप गई? जिससे पाठकों में भ्रम ना रहे। राजेन्द्र यादव ने उस वक्त कहा कि ठीक है। तीन दिनों बाद राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘समीक्षा छापने का निर्णय संजय सहाय का था, इसलिए वही बताएंगे कि क्या जाएगा?’

मैने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘आप संजय सहाय से बात करके खबर करवा दीजिएगा।

उनकी तरफ से कोई फोन नहीं आया। मैंने फिर उन्हें ई मेल किया। आपने स्पष्टीकरण की बात कही थी, आप इस बार हंस में क्या छाप रहे हैं, आपका जवाब नहीं आया। इस ई मेल का जवाब नहीं आया तो मैने एक और ई मेल उन्हें लिखा। लेकिन उसका जवाब भी नहीं आया।

जब हंस का सितम्बर अंक हाथ में आया, उसमें राजेन्द्र यादव ने मेरे लिए अपमानजनक बातें लिखी थी। जो उन्हें लिखना था, ज्योति ने हंस का बहिष्कार किया है। वह कहीं नहीं लिखा। उन्होंने मना करने के बावजूद समीक्षा छापने की बात भी कहीं नहीं लिखी। जब तक मैं उनके पास काम कर रही थी, तब तक बहुत अच्छी थी। जब मैने उनके घर में हुए गलत हरकत का विरोध किया तो उन्होंने मेरा साथ नहीं दिया। जब मैने उनका और उनकी पत्रिका का बहिष्कार किया तब उनको याद आया कि मेरा काम दस हजार के लायक भी नहीं था। यदि मेरा काम अच्छा नहीं था तो मुझे हंस में अपने पास रखा क्यों था? निकाला क्यों नहीं? मैंने तो कभी उनसे चंदा नहीं मांगा। क्या राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बांटते हैं। यदि राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बांटते है तो फिर यह चंदा सिर्फ ज्योति को क्यों? यदि चंदा ही दे रहे थे तो फिर बदले में इतना काम क्यों लेते थे?

(यह ज्योति के बयान अंतिम भाग नहीं है……कहानी अभी बाकि है साथियो)

(पत्रकार आशीष कुमार अंशु के ब्लॉग बतकही से साभार)

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