नहीं रहे पत्रकार कुमार सुरेन्द्र,कब तक होते रहेंगे इस्तेमाल

संजय कुमार

कुमार सुरेन्द्र
कुमार सुरेन्द्र
भूख-प्यास छोड़ कर राजनीतिक दलों की खबरों के पीछे-भागने व संकलित करने के बाद अखबार के संस्करण छुटने के पहले, उसमें देने की जीतोड़ कोशिश पत्रकारों का दैनिक कार्य ही नहीं फर्ज भी है। ऐसे में राजनेताओं व राजनीतिक दलों के बीच एक रिश्ता कायम हो जाता है। राजनेता व राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए पत्रकारों को बड़ी सफाई से इस्तेमाल करने से नहीं चूकते हैं। मीडिया व राजनीतिक हल्कों में प्रायः देखा जाता है कि नामी-गिरामी पत्रकार के बीच का संबंध निजी भी हो जाता है। वहीं ईमानदार पत्रकार को यह सब नसीब नहीं होता। वह जब मरता है तब राजनेताओं व राजनीतिक दलों की वह दौड़ नहीं दिखती, जो नामी-गिरामी पत्रकार के लिए दिखती है। हालांकि पत्रकार इस ललक में काम नहीं करता कि कोई राजनीतिक दल या राजनेता उसके सुख-दुख में भागीदार बने। लेकिन, एक मानवीय दृष्टिकोण, महत्व जरूर रखता है। ऐसा ही कुछ घटित हुआ बिहार की पत्रकारिता जगत में।

बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित एक उर्दू दैनिक क़ौमी कामी तंजीम के वरीय संवाददाता कुमार सुरेन्द्र को जब नौ अगस्त को ब्रेन हैम्रेज हुआ और उसी दिन उन्हें देर रात अस्पताल में भर्ती कराया गया और उनका आपरेशन भी हुआ। लेकिन, दुखद घटना यह हुई की 14अगस्त की सुबह लगभग आठ बजे उनका निधन हो गया। पत्रकारों की एक जमात ने 12अगस्त को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलकर बीमार पत्रकार के इलाज के लिए समुचित आर्थिक सहयोग की अपील की थी। वर्षो से बिहार विधानमंडल की गतिविधियां और राजनीतिक खबरों को शब्दों में पिरो कर उर्दू अखबार के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने वाले कुमार सुरेन्द्र के बीमार पड़ने व उनके निधन की घटना की अवधि में एक भी राजनीतिक दल के नेताओं ने सुध तक नहीं ली। शोक में दो शब्द क्या, ना तो बीमारी में देखने गये और ना किसी तरह की सहायता दी। यही नहीं उनके मरने के बाद अंतिम दर्शन के लिए अस्पताल की ओर कदम भी नहीं उठे। कुमार सुरेन्द्र के करीबी कहते हैं अल्पसंख्यों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए राजनीतिक दल व नेतागण कुमार सुरेन्द्र की चिरोरी किया करते थे।

पत्रकार कुमार सुरेन्द्र की मौत कई सवाल छोड़ गया है। बिहार की मीडिया में कुमार सुरेन्द्र एक ईमानदार छवि के पत्रकार के रूप में जाने जाते थे। नौकरशाही डाट काम के संपादक इरशादुल हक कहते हैं कि सुरेन्द्र जी एक उर्दू अखबार को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। देवनागरी लिपि जाने वाले उर्दू की पत्रकारिता में आ कर लोगों को हैरत में डाल दिया था। कौमी तंजीम से जड़े सुरेन्द्र जी का हौसला संपादक असरफ फरीद ने बढ़ाया। फारसी लिपि सिखने में उन्हें थोड़ा समय लगा। लेकिन, धीरे धीरे उर्दू पढ़ने और बोलने लगे। कौमी तंजीम के अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन से जुड़े रहे। एक ईमानदार और संर्घषशील पत्रकार के सारे गुण उनमें थे।

उर्दू पत्रकारिता की हालत हिन्दी से ज्यादा खराब है। यह सब जानते हैं। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होते हुए भी उन्होंने उर्दू पत्रकारिता को छोड़ा नहीं। बिहार विधानमंडल सत्र के दौरान अपनी पैनी नजर खबरों पर रखते थे। राजनीतिक हलको की खबरें उर्दू पाठकों तक पहुंचाते थे। 09अगस्त यानी ईद के दिन सुरेन्द्र जी को ब्रेन हैम्रेज हुआ, उन्हें पटना के उदयन सुपर स्पेसलीटी अस्पताल में भर्ती कराया गया। पत्रकार शशिभूषण ने बताया कि जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तब अस्पताल के डाक्टरों ने आपरेशन की सलाह दी। अचानक पैसों का बंदोबस्त सामने आया। लेकिन पत्रकारों के कहने पर अस्पताल ने सहयोंग किया। कुमार सुरेन्द्र का आपरेशन किया गया। कौमी तंजीम के संपादक ने भी बढ़ कर आर्थिक मदद की।

बिहार की मीडिया में कुमार सुरेन्द्र की बीमार होने की खबर कुछ अखबारों में आयी। लेकिन, एक बड़ा अखबार एक लाइन की खबर प्रकाशित तक नहीं की। पत्रकार संगठनों ने मुख्यमंत्री से 12अगस्त को मिल कर आर्थिक मदद की गुहार लगायी। मदद तो नहीं पहुंची लेकिन 14 अगस्त को कुमार सुरेन्द्र ने दम तोड़ दिया। पत्रकार साथी ही मौके पर पहंुचे। अफसोस इस बार भी, सरकार ना ही राजनीतिक दलों का नुमाईनदा अस्पताल पहंुचा और शोक व्यक्त किया। इसे लेकर पत्रकारों के बीच गहमा-गहमी देखी गयी। एक कतरा आंसू बहाने तक कोई नहीं आया, जिसके लिए वे खबरे गढ़ते रहे वहीं, उनके जनाजे में नदारत दिखें। खबर के लिए फोन पर फोन कर पत्रकारों को अपने रिझाने वाले राजनेताओं-दलों की असलियत सामने आ गयी। वहीं, कुमार सुरेन्द्र के लिए कौमी तंजीम के संपादक का बढ़-चढ कर सहयोग करना-मदद करना हिन्दी मीडिया के मुंह पर तमाचा भी रहा। पिछले दिनों पटना हिन्दुस्तान के पत्रकार गंगेश श्रीवास्तव का सड़क हादसे में निधन हो गया था। हिन्दुस्तान ने अपनी तरफ कोई मदद नहीं की। सिवा ग्रुप बीमा के। वहीं, हिन्दुस्तान के पत्रकारों ने एक दिन का वेतन देकर गंगेश के परिवारों को मदद पहुंचाई। सवाल उठता है कि दिन-रात अखबार के लिए दौड़-भाग कर, जाखिम उठा कर खबर लाने वाले पत्रकारों के साथ यह व्यवहार क्यों ? अपने खून को जला कर अखबारों के मालिकों के तिजोरी भरने वाले पत्रकार के हिस्से में जाता क्या है। वहीं किसी बड़े मीडिया हाउस के मालिक/संपादक को कुछ हो जाये तो फिर देखिये, राजनीतिक दलों व नेताओं की लाइन लग जाती है।

(लेखक इलैक्टोनिक मीडिया से जुडे हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.