भारत में विकल्प की राजनीति के सूत्रधार : जय प्रकाश नारायण

आलोक कुमार

व्यक्ति – विशेष जब ‘स्व’ की सीमा से विस्तृत हो कर एक ‘विचार-धारा’ के रूप में रूपांतरित होते हैं तो उनका दर्शन , व्यक्तित्व , कृतित्व एवं उनकी सोच व उपलब्धियाँ चिरस्मरणीय हो जाती हैं जिन्हें इतिहास ‘कालजयी’ कहकर विभूषित करता है , जयप्रकाश जी उन्हीं विभूतियों में से एक थे l देश में गाँधी जी की अगुआई वाले स्वतन्त्रता – आन्दोलन के उपरांत सही मायनों में किसी जन-आन्दोलन का नेतृत्व जयप्रकाश जी ने ही किया l मेरे विचार में भारतीय राजनीति में विकल्पों के सूत्रपात का श्रेय जयप्रकाश जी को ही जाता है l बिहार की पावन भूमि से शुरुआत कर देश ने गाँधी जी के नेतृत्व में आजादी हासिल की और जयप्रकाश जी ने भी इसी भूमि से एक छात्र-आन्दोलन को अपने विचारों, दर्शन तथा व्यक्तित्व से भारत की राजनीति को एक बिल्कुल ही भिन्न स्वरूप में परिवर्तित कर दिया l

जैसा कि हम सब जानते हैं कि अमेरिका में अपने शैक्षणिक प्रवास के दौरान जयप्रकाश जी मार्क्स के समाजवादी सिद्धांतों से प्रभावित थे और सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजी सत्ता को भारत से बेदखल करना चाहते थे l लेकिन कालांतर में नेहरू जी के माध्यम से गाँधी जी के संपर्क में आ कर उनके इस दृष्टिकोण में बदलाव आया और १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी प्रभावी भूमिका के फलस्वरूप‘अगस्त क्रांति ‘ के नायक के रूप में जयप्रकाश जी ने प्रसिद्धि भी पाई l

जयप्रकाश जी ने १९५० के दशक में ‘राज्य-व्यवस्था की पुनर्रचना’ नामक एक पुस्तक लिखी थी , अपनी इसी पुस्तक के माध्यम से देश में ‘सत्ता के विकेंद्रीकरण’ की बात सबसे पहले जयप्रकाश जी ने ही उठाई थी l इसी पुस्तक को आधार बनाकर नेहरू जी ने १९५७ में बलवंत राय मेहता की सरपरस्ती में ‘मेहता – आयोग ’ का गठन किया था , जिसने १९५८ में देश में लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त पर आधार्रित पंचायती राज – व्यवस्था को लागू करने का सुझाव दिया था l

आज हम सब राजनीति व सार्वजनिक जीवन में शुचिता व पारदर्शिता की बात करते हैं लेकिन आज से दशकों पहले जब आजादी के चंद वर्षों के उपरांत इन क्षेत्रों में मूल्यों का ह्रास अपनी शैश्वावस्था में ही था तब मुखर – स्वर में जयप्रकाश जी ने सत्ता में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने की बात कही थी l

१९५७ में ‘लोकनीति’ के पक्ष में सक्रिय राजनीति से अपने संन्यास के निर्णय के पश्चात जयप्रकाश जी १९६० के दशक से पुनः राजनीति में सक्रिय हुए और १९७० के शुरुआती दौर में केंद्र की सरकार की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया l मैं मानता हूँ कि ये परिचर्चा और बहस का विषय अवश्य है कि कैसे सम्पूर्ण क्रांति की जयप्रकाश जी की अवधारणा से ही निकल कर एवं राजनीतिक पटल पर उभर कर सत्ता तक पहुंचते ही जयप्रकाश जी के अनुयायियों ने ही इस विचारधारा से अपने आप को अलग कर लिया l

मुझे आज भी स्मरण है जब पाँच जून, १९७५ को इसी पटना के गाँधी मैदान के अपने प्रसिद्ध भाषण में जयप्रकाश जी ने कहा था कि “भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रान्ति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं; क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं , वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति नहीं ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ आवश्यक है l” इसी सभा में उन्होंने पहली बार ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के दो शब्दों का उच्चारण पहली बार किया था l ये जयप्रकाश जी के सम्पूर्ण –क्रांति के आह्वान का ही असर था जिसने राष्ट्रकवि दिनकर को भी ये कहने के लिए प्रेरित किया कि “ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है l ” मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि जयप्रकाश जी की ‘सम्पूर्ण-क्रांति’ व्यक्ति – विशेष केन्द्रित नहीं अपितु राजनीति जनित कुरीतियों से संक्रमित होती लोकतान्त्रिक व्यवस्था को उबारने की पहल थीl

जयप्रकाश जी ने कहा था “इतिहास की सभी व्यवस्था – परिवर्तन की सफलताएँ अपने शुरुआत में विचार – क्रांति का ही छोटा रूप थीं , विचारों में परिवर्तन से ही सबों के जीवन में बदलाव लाया जा सकता हैl” मेरा भी मानना है कि विचार , सकारात्मक – संघर्ष , स्वशिक्षण , स्वानुशासन और संगठन की पंच – प्रक्रियाओं से ही कोई भी व्यापक बदलाव संभव है और बदलाव के ये सारे तत्व जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण-क्रांति की अवधारणा के मूल में थे l जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा में सात क्रांतियाँ समाहित थीं : राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति , जो आज भी प्रासांगिक हैं बशर्ते इनका क्रियान्वयन एक सार्थक व ईमानदार सोच के साथ हो l

जयप्रकाश जी ने जो सवाल उठाए थे , जिन सुधारों की बातें की थीं , जिन समस्याओं के उन्मूलन की पहल की थी वो सारी समस्याएं आज पहले से भी ज्यादा विकराल रूप में यथावत हैं l आपातकाल के दौरान के दौरान गाँधी मैदान, पटना की एक सभा में जयप्रकाश जी को चुनाव सुधारों की बात करते और चुनावों में कम खर्च करने पर जोर देते हुए मैं ने सुना था l वर्ष १९७१ के लोकसभा चुनाव में १००करोड़ रूपये खर्च होने पर जयप्रकाश जी ने सार्वजनिक मंच से अफसोस जताया था , लेकिन आज के समय में किसी एक लोकसभा क्षेत्र में ही इससे कहीं ज्यादा धन खर्च हो जाता है। ऐसे में आज लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में सुधारों के संदर्भ उनकी प्रासंगिकता कहीं और बढ़ जाती है।

मैं ने जितना जयप्रकाश जी को सुना है या उनके बारे में पढ़ा – सुना है उसके आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर आता हूँ कि “जयप्रकाश जी आज की इस राजनीति के संक्रमण काल के दौर में पहले से ज्यादा प्रसांगिक हैं और आने वाली पीढ़ियाँ अवश्य ही जयप्रकाश जी को त्याग – तपस्या के प्रतीक ,जनहित के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले महान योद्धा एवं क्रांति के आह्वान के माध्यम से जनभावना को स्वर देने वाले विचार-पुरोधा के रूप में याद रखेंगीं l”

एक बार फिर भारत के वरद – पुत्र को नमन व श्रद्धांजलि….

आलोक कुमार
(वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक , पटना)

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