महाखजाने की महाकवरेज से समझिए अंग्रेजी और हिंदी चैनलों का चाल-चरित्र

नदीम एस.अख्तर

कहते हैं हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में अंतर नहीं. लेकिन महाखजाने की महाकवरेज में हिन्दी-अंग्रेजी की सोच का अंतर साफ दिख रहा है. अंग्रेजी के चैनलों ने सोने की खोज को ‘राष्ट्रीय मिशन’ नहीं बनाया है. वे इसे रूटीन खबर के रूप में ले रहे हैं. रेगुलर बुलेटिन में एक न्यूज स्टोरी. बस. महाकवरेज वहां नहीं दिखता. इस तरह के स्लोगन उन्होंने नहीं चलाए. उल्टे इस बेतुकी खुदाई पर सवाल उठाए जा रहे हैं. अभी एक अंग्रेजी चैनल देख रहा था. उसने खुदाई को BIZARRE की संज्ञा दी. और इसी स्लग के साथ पूरी स्टोरी दिखाई. अलग-अलग एंगल से. कहीं से भी इस खुदाई ओर सोने की खोज को महिमामंडित करने का प्रयास नहीं दिखा. हालांकि उस चैनल ने भी अपना ओबी वैन और एक सीनियर रिपोर्टर को खुदाई वाली जगह पर भेजा हुआ है. लेकिन हिंदी चैनलों ने इस खुदाई को महाखोज बताकर जिस तरह भूचाल पैदा कर दिया है, उसे देखकर यह आम बात है कि कोई भी बड़ा अंग्रेजी का चैनल उस खबर को पूरी तरह इग्नोर तो नहीं ही करेगा.

अंग्रेजी चैनल की कवरेज में कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं दिखी. एकदम सधी हुई सटीक टू द पॉइंट रिपोर्ट. सिर्फ खबर के रूप में. जो होना चाहिए. कहीं से भी राजा के रूह, सपने, खजाने और खुदाई को किसी तिलिस्म के रूप में दिखाने की कोशिश नहीं थी. ये देखकर भी अच्छा लगा कि अंग्रेजी चैनल पर ही पहली बार इस मामले की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी Archaeological Survey of India यानी एएसआई के डायरेक्टर की बाइट पहली बार देखी. जी हां, पहली बार. यानी उस संस्था के सबसे बड़े अधिकारी मामले पर बोलते हुए अंग्रेजी में दिखे. गन माइक भी सिर्फ उसी एक अंग्रेजी चैनल की थी यानी यह उस चैनल का विशेष प्रयास था उनसे बात करने का. वरना सारे हिंदी के चैनल किले में पहुंचे खुदाई के इंचार्ज ASI अफसर किसी मिश्रीजी की बाइट लेकर ही धन्य थे. उनसे आगे एएसआई के किसी अफसर से बात करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई.

ये लगा कि अंग्रेजी का सिर्फ यही चैनल तो नहीं जो इस खबर पर संयम बरत रहा हो, दूसरे अंग्रेजी चैनलों पर भी गया. वहां भी शांति पसरी थी. वो देश को महाखजाने का महारहस्य बताने को बेताब नहीं दिखे. सभी अंग्रेजी चैनलों पर मोदी की आज वाली रैली, आसाराम, कोलगेट-बिड़ला एएफआईआर जैसी खबरें ही चलती दिखीं. हां नरेंद्र मोदी ने अपनी रैली में जिस तरह खुदाई का मजाक उड़ाया, सोने की इस खोज को बेतुका करार दिया और कहा कि उससे ज्यादा पैसा तो स्विस बैंकों में काले धन के रूप में है, वह अंग्रेजी चैनलों पर ब्रेकिंग पट्टी के रूप में जरूर चलती दिखाई पड़ी.

तो क्या माना जाए कि अंग्रेजी के पत्रकार, हिन्दी के पत्रकारों से ज्यादा गंभीर होते हैं. उनकी सोच हिंदी वालों से अलग होती है. और सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या अंग्रेजी टीवी चैनलों के संपादक पर बाजार-टीआरपी का दबाव नहीं होता??? और अगर होता है तो फिर वे खजाने की महाखोज को 24 घंटे का अभियान क्यों नहीं बनाते??? टीवी की स्क्रीन पर खजाने की खुदाई का काउंटडाउन क्यों नहीं दिखाते??? आप मानें या ना मानें, पीपली लाइव-2 की महाकवरेज ने ये साबित कर दिया है कि इस देश में हिन्दी टीवी मीडिया और अंग्रेजी टीवी मीडिया के एजेंडे अलग-अलग हैं. अगर आपको बुरा ना लगे, तो ये बात कह सकता हूं कि हिन्दी वाले सांप-परी-स्वर्ग की सीढ़ी-नरक का दरवाजा-बिना ड्राइवर वाली कार-महाखजाने की महाखोज जैसी खबरों पर अपना फोकस बनाते हैं. उन्हें पता है कि उनका दर्शक बहुत ही निम्न वर्ग से लेकर सास-बहु के सीरियल देखने वाला मिडिल क्लास है. सो अगर ये सब दिखाओगे, fantasy create करोगे, तो दाम मिलेंगे. यानी टीआरपी पक्की है.

इसके उलट अंग्रेजी टीवी चैनलों को पता है कि उनका दर्शक पढ़ा-लिखा, आजाद ख्याल और mature किस्म का प्राणी है. सो अगर उन्हें भूत-प्रेत-सांप-सीढ़ी दिखाया, तो बहुत गाली देंगे. चैनल का मालिक भी बख्शेगा नहीं. हां, वही मालिक समूह के हिन्दी चैनल में सांप-सीढ़ी वाली खबर दिखाने से मना नहीं करेगा. ये बात आज साफ-साफ दिख रही है. सबको अपने इमेज की चिंता है. हिंदी न्यूज चैनल मतलब शुद्ध देसी रोमांस यानी भदेस. कुछ भी दिखा दो, तिल का ताड़ बना दो, आंय-बांय-सांय कर दो, कोई मां-बाप नहीं. कोई नहीं बोलने वाला.

लेकिन अगर चैनल अंग्रेजी का है, तो मजाल है कि आप दर्शकों को टीवी न्यूज में कुछ भी दिखा देंगे. चैनल के मालिक भी जानते हैं कि उनका चैनल अंग्रेजी में होने के कारण विदेशों में भी देखा जाता है. सो यहां अल्ल-बल्ल चलाकर भद्द नहीं पिटवा सकते. इमेज खराब हो जाएगी. आखिर बीबीसी और सीएनएन वाले क्या बोलेंगे?? टीआरपी मिले या ना मिले, खबर पर बने रहो. गंभीर रहो और दिखो. ये अंग्रेजी की दुनिया है. वर्ल्ड लैंग्वेज है. भले बिजनेस आए या ना आए चैनल से. टीआरपी मिले या ना मिले.

पर अगर समूह का चैनल हिंदी में है, तो टीआरपी MUST है. बिजनेस आना जरूरी है. वरना संपादक की खैर नहीं. अंग्रेजी वाले संपादक का संबंध नारी राडिया जैसी लॉबिस्ट से भी पता चल जाता है तो वह चैनल में बनी रहती हैं. उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. भले ही इंडिया गेट पर उनके नाम को लेकर प्रदर्शन हो जाए. जरा अंदाजा लगा लीजिए कि अगर किसी हिन्दी चैनल के संपादक ने ऐसी हरकत की होती तो क्या होता?? थू-थू हो जाती. बड़े बेआबरू होकर कूचे

नदीम एस अख्तर
नदीम एस अख्तर
से रुखसत किए जाते. यही कहा जाता कि ये हिन्दी वाले होते ही ऐसा हैं. हड़ी देखी नहीं कि लार टपका दिया. लेकिन अंग्रेजी वाले मलाई खाएं, तो उसमें भी एक अदा है. FASHION STATEMENT है. Status symbol है. आखिर सभी सम्पादकों के वश की बात थोड़े है जो नीरा राडिया जैसी प्रतिष्ठित लॉयजनिंग अफसर से सम्बंध स्थापित कर सके. या यूं कहें कि नीरा राडिया हिन्दी के सम्पादकों को भाव दे दें, ऐसी किस्मत कहां. और मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. नीरा राडिया प्रकरण पर डिबेट के दौरान मैने हिंदी के संपादक को ऐसी बात कहते हुए सुना है. यानी नीरा राडिया भी हिन्दी और अंग्रेजी मीडिया-टीवी मीडिया का फर्क जानती है. उसे पता था कि मीडिया हाउस के मालिक को अगर influence करना है तो अंग्रेजी के सम्पादक को पटाओ. हिंन्दी वाले बेचारे ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे उसकी मदद. तो हिन्दी और अंग्रेजी टीवी चैनलों की इस फितरत और status का असर आज महाखजाने की महाकवरेज पर भी दिख रहा है. जय हो.

(लेखक आईआईएमसी से जुडे हैं. स्रोत – एफबी)

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