एक महिला न्यूज एंकर की टिप्पणी के बहाने

आजतक पर चुनाव विश्लेषण

नदीम एस.अख्तर

आजतक पर चुनाव विश्लेषण
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टीवी देखता नहीं लेकिन इंटरनेट पर लाइव टीवी अभी-अभी देखा. नजर पड़ गई तो पलभर के लिए ठहर गया. एक बड़े न्यूज चैनल की महिला एंकर की टिप्पणी सुनिए— “नीतीश बाबू को भी क्या हो गया है. कहते रहते हैं ऐसा होता तो वैसा होता…और मोदी नाम की तकलीफ तो उनकी पेशानी पर परमानेंट जगह पा चुकी है.”

चलिए, न्यूज के साथ व्यूज का कॉकटेल रंग जमा रहा है. और एंकरिंग करते वक्त लोग ये भूल जाते हैं कि ये जो लालू हैं, नीतीश हैं, नरेंद्र मोदी हैं, वो स्टूडियो में बैठकर और अखबार-मैगजीन पढ़कर ज्ञान नहीं बांचते. सब के सब जमीन से उठे हैं, जमीन पर घूमे हैं, तभी आज हेलिकॉप्टर पर उड़ रहे हैं.

और आप..??!!! गूगल सर्च और अखबारों-पत्रकाओं के आर्टिकल्स का ज्ञान और संबंधित राज्य के ब्यूरो चीफ से मिली टिप्स के बल पर चले हैं नीतीश की पेशानी पर पड़े बल का कारण बताने. अजी, जरा नीतीश की पॉलिटिक्स तो समझ लीजिए, जरा लालू की राजनीति तो बूझ जाइए. जरा जनता के बदले मिजाज को तो परख लीजिए. एंकरिंग का मतलब ये नहीं है कि दनादन बोले जाना. स्टूडियो में गेस्ट के रूप में बैठे अनुभवी पत्रकारों की बातों को काटकर आप दनादन स्विच करते रहिएगा और बोलते रहिएगा तो धारदार एंकरिंग नहीं हो जाएगी. चुनाव परिणाम का दिन है, एक एंकर की हैसियत से आप के लिए बड़ा दिन होगा, सब लोग आपको देख रहे होंगे (अगर ये गुमान हो तो) लेकिन कम से कम बड़े नेताओं पर, जिन्होंने खून-पसीना बहाकर राजनीति में अपनी जगह बनाई है, यूं ही कामचलाऊ टिप्पणी तो ना करिए. और भी क्या-क्या बोला होगा आपने, मुझे पता नहीं. मैं तो आपके श्रीमुख से निकले बस इसी एक वाक्य को सुनकर स्तब्ध रह गया !! इसके बाद आगे सुनने का मन नहीं हुआ.

एक और बड़े पत्रकार को सुना. झारखंड में बाबूलाल मरांडी दोनों सीटों से हार गए, ये खबर आ रही है. इस पर उन बड़े पत्रकार महोदय को जवाब नहीं सूझ रहा. गोलमोल बोल रहे हैं. मरांडी क्यों हारे, जबकि उनकी छवि अच्छी थी, बोलते नहीं बन रहा. भाई, आपलोग भी जरा होमवर्क करके पैनल में बैठिए. आंय-बांय-सांय तो अपना चीकू चायवाला और रीकू रिक्शावाला आपसे ज्यादा अच्छे तरीके से बोल सकता है. कम से कम वहां की पॉलिटिक्स को समझकर बोलिए.

चैनल वालों को भी चाहिए कि जिस राज्य के चुनाव परिणामों पर चर्चा कराई जा रही है, वहां के लोकल बड़े पत्रकारों का पैनल बनाकर उस पर डिबेट कराएं. जो वहां की मिट्टी की खुशबू जानते हों और जो सालभर वहां की लोकल पॉलिटिक्स देखते हैं. ये क्या बात हुई कि चुनाव किसी भी राज्य में हों, वही घिसे-पिटे दिल्ली के -बड़े पत्रकारों- का पैनल बना दिया, जो ना तो वहां की खबरों से ज्यादा वाकिफ रह पाते हैं और ना ही जमीन पर जाकर वहां की राजनीति और जनता के मिजाज को समझते हैं. उनको स्टूडियो में बिठाइएगा तो वही गोलमोल जवाब मिलेगा. हां, अगर आपको लगता है कि बढ़िया ग्राफिक्स, लार्ज स्क्रीन, नई तकनीक, -फास्ट- इलेक्शन रिजल्ट्स (सभी चैनल यही दावा करते हैं), वही पका-पकाया हुआ विशेषज्ञों का पैनल और बोरिंग डिबेट कराकर आप जनता को अपने चैनल की स्क्रीन पर चिपके रहने के लिए विवश कर देंगे, तो आपकी मर्जी. ये जान लीजिए कि जिस दिन हवा का नया झोंका आया, आपके फूल की खुशबू उड़ जाएगी. वैसे भी बसंत और पतझड़ प्रकृति के चक्र हैं. अगर सालोंभर बसंत चाहिए तो अपने गमले में खाद-पानी की उचित व्यवस्था करके रखिए.

(लेखक आईआईएमसी में अध्यापन कार्य में संलग्न हैं)

1 COMMENT

  1. एक महिला का आत्‍मविश्‍वास से भरा होना प्रशंसा का विषय होना चाहिए लेकिन कई पुरुष एंकर भी और ख़ासकर यह मोहतरमा भी शंकराचार्यों तक को अध्‍यात्‍म और मानव-सेवा की ए बी सी डी भी ठीक से न समझने का सर्टिफिकेट दे चुके /चुकी हैं, जिनके जीवन पर नज़र डालें तो इनकी हैसियत उनके चरणों में बैठकर ज्ञान सीखने की भी नहीं (भई सामने वाला आपसे ज्‍़यादा बड़ा जानकार हो सकता है, यह स्‍वीकार करने में दिक्‍़कत क्‍या है ?) । इन मैडम के महाज्ञान में तो इतनी हिक़ारत होती है जैसे एक तो इनसे ज्‍़यादा किसी भी विषय ( राजनीति, समाज, धर्म, अध्‍यात्‍म) की जानकारी रखने की किसी की औकात ही नहीं और दूसरे इन्‍हें कोई क्रॉस क्‍वेशचन नहीं कर सकता क्‍योंकि इनके तथ्‍य शाश्‍वत हैं और इनके ग़लत होने की संभावना हो ही नहीं हो सकती ।
    वैसे इनका या इन जैसों का दोष नहीं है। कितने पात्र लोगों को अवसर मिल पाता है मीडिया में, क्‍या आप जानते नहीं ! औसत लोग, औसत विचार सिरमौर तो होंगे ही क्‍योंकि दूसरे तो इतने भी स्‍तरीय नहीं । आजकल यह वैचारिक गिरावट और घमण्‍ड का कॉकटेल हर जगह देखा जा सकता है, कहने /कहाने, सुनने /सुनाने वाले सब को एक जैसी स्‍तरहीनता का लक़वा लग चुका है । अर्द्धज्ञानी ज्ञान बांट रहे हैं और जनता और जानकार तो विकल्‍पहीनता की स्थिति में चुप रहकर चारों तरफ़ चल रही बकवास सुनने को विवश हैं या अवसरहीनता की स्थिति में औने-पौने पैसों की नौकरी कर अपने चप्‍पल-जूते चटका रहे हैं ।

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