फेसबुक पर फुसफुसाहट और साहित्य उत्सव का समापन

फेसबुक पर फुसफुसाहट और साहित्य उत्सव का समापन
फेसबुक पर फुसफुसाहट और साहित्य उत्सव का समापन

संजय स्वदेश

फेसबुक पर फुसफुसाहट और साहित्य उत्सव का समापन
फेसबुक पर फुसफुसाहट और साहित्य उत्सव का समापन

रायपुर साहित्य उत्सव संपन्न हुआ। इसकी शुरुआत से लेकर समापन के बाद तक फेसबुक पर तरह तरह के मुद्दे को लेकर फुसफुसाहट जारी है। कोई दमादारी से इसके पक्ष में आवाज उठा रहा है तो कई मित्र छत्तीसगढ़ के कुछ मुद्दों को पैनालिस्टों द्वारा नहीं उठाने को लेकर विधवा विलाप कर रहे हैं। इस आयोजन के पहले और समापन के बाद तक ढेरों ऐसी बातें हैं जो इस समारोह में शामिल होने वाले भी नहीं जान पाए होंगे या दिल्ली से टाइमलाइन पर पोस्ट करने वाले महसूस कर पाए होंगे। जिस दौर में अखबारों के पन्नों से साहित्यिक को लेकर जगह के आकाल पड़ने को लेकर अखबार मालिक व संपादकों को कोसा जाता है, उस दौर में एक ऐसा राज्य साहित्य का एक ऐसा भव्य उत्सव का आयोजन करता है, जिससे न केवल रचनाकार बेहतरीन सम्मान पाता है बल्कि उसे अच्छा मानेदय दिया जाता है, यह कम बड़ी बात नहीं है। हिंदी साहित्य वाले हमेशा पारिश्रमिक को लेके रोना रोते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में शायद अतिथियों को उतना मानदेय नहीं दिया जाता है जितना की छत्तीसगढ़ सरकार ने दिया।
इस पर यह तर्क देकर सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है कि यह पैसा गरीबों का है, नसबंदी कांड के पीड़ितों को दे दिया जाता तो उनका भला हो जाता। नसबंदी कांड निश्चय ही शर्मनाक घटना थी, लेकिन मामले के प्रकाश में आते ही जिस तरह से प्रशासन ने हरकत में आकर इस पर कार्रवाई की, उससे कई महिलाओं की जान बच गई। उन्हें सरकार ने मुआवजा दिया। उनके बच्चों को सरकार ने गोद ले लिया। 18 साल तक के उम्र तक बेहतरीन अस्पताल में इलाज का पूरा खर्च उठाने का निर्णय लिया। इन सब सकारात्मक चीजों को स्थानीय अखबारों में जगह तो मिल गई, लेकिन बाहरी मीडिया में इसे तब्बजों नहीं मिला। सरकार हर विभाग को अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए बजट देती है। तो क्या स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही से जो मातमी माहौल बना, उसमें सांस्कृतिक विभाग और जनसंपर्क विभाग अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को छोड़ दे।

रायपुर साहित्य उत्सव को लेकर सोशल मीडिया में जो बातें आ रही हैं, उसका न कोई ठोस तर्क है न ही विरोध का मजबूत आधार। चूंकि साहित्य का इतना बड़ा आयोजन पहली बार हो रहा था। थोड़ी बहुत चूक की गुजांईश स्वाभाविक है। लेकिन थोड़ी चुक से पूरी साकारात्मक पहल को नाकार देना कहां का न्याय है? दिल्ली में साहित्यिक संगोष्टि होती है तो तब उसमें विरोध करने वाले यह मुद्दा क्यों नहीं उठाते हैं कि हर दिन दिल्ली की सड़कों पर लापरवाही से वाहन चलाने वाले दो-चार लोगों को अकाल मौत की नींद सुला देते हैं। आखिर वहां भी तो आयोजन होते हैं और दिल्ली की सड़कों पर होने वाली मौतें कम बड़ा मुद्दा नहीं है। चलिए इस मौतों को छोड़िए, दुष्कर्म के तो हर दिन मामले दर्ज होते हैं, फिर ये साहित्यकार क्यों नहीं भक्तिकाल और रीतिकाल से साहित्यिक गतिविधियों बहिष्कार या विरोध करते हैं। दिल्ली में महिला सुरक्षा तो बड़ा मुद्दा है। इस मुद्दे को लेकर साहित्यक गतिविधियों में साहित्यकारों का क्या स्टैंड होता है?

दरअसल पूरी प्रवृत्ति विरोध करने को लेकर विरोध की मानसिकता की दिखती है। शहर से कार्यक्रम स्थल तक पहुंचने तक इस कार्यक्रम को लेकर जितने होर्डिंग या बोर्ड लेगे थे निश्चय ही उससे कहीं ज्यादा कुर्सियां यहां खाली दिखी। लेकिन जो अतिथि वक्ता आएं, उनसे बातचीत के आधार पर स्थानीय अखबारों ने जो कवरेज और बातों को प्रस्तुत किया, अगले दो दिनों तक भीड़ बढ़ती गई। इसके बाद भी कुछ लोगों की यह शिकायत थी कि मंडल में कुर्सियां खाली रही। इसको लेकर एक बात और सुनिए।

हर मंडल में दिन एक ही समय पर तीन से चार कार्यक्रम। भव्य आयोजन था। इतने साहित्य प्रेमी कहां से आते। जिन्हें जो विषय पंसद आया वे उसे मंडप में बैठे रहे। हमें एक ही समय में दो मंडपों के कार्यक्रम पसंद आए, लेकिन एक ही मंडप में बैठना पड़ा। यदि दिल्ली में इसी तर्ज पर साहित्य का उत्सव हो तो संभवत हर मंडल में भीड़ उमड पड़े। लेकिन वह कार्यक्रम दिल्ली से बाहर सूरजकुंड में हो तो शायद दर्शकों और श्रोताओं का टोटा पड़ जाता। यहां तो एक छोटे से राज्य के एक छोटी सी राजधानी में बाहर जहां घुमने जाने के लिए भी हिम्मत जुटानी पड़ती है, वहां साहित्य का उत्सव होता है और सीधे सादे छत्तीसगढ़ के मुठ््ठी भर साहित्य प्रेमी इस उत्सव में पहुंचते हैं, यह कम बड़ी बात नहीं है। दिल्ली मुंबई से आए हुए वक्ताओं को तो यहां की ट्रैफिक उनके शहर की तुलना में नागण्य दिखी होगी, लेकिन वह यहां की जनता के लिए ज्यादा है? हर शहर की अपनी क्षमता होती है।
एक और चीज तो फेसबुक पर लेकर चर्चा हो रही है कि यहां आने वाले वक्ताओं ने सरकार को नहीं घेरा। मैं स्वयं एक मंडप में उपस्थित था। वहां देखा ही नहीं सुना भी। दिल्ली के एक वक्ता ने तो यहां के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के उद्घाटन में दिए गए वक्तव्यों को लेकर कटघरे में खड़ा करते हुए रियल दुनिया वर्चुअल और ओर वर्चुअल रियल है का बेहतरीन ओर सटीक उदाहरण दिया। इसी मंडप के मंच पर दो अन्य वक्ताओं से भी सत्ता को कटघरे में खड़ा करने वाली बातें सुनने को मिली।

कार्यक्रम में अंतिम दिन तो हालत यह थी कि पार्किंग दो पहिया और चार पहिया वाहनों से भरी हुई थी। भीड़ गैर साहित्यकारों से की ज्यादा थी। गैर साहित्य प्रेमी इस उत्सव को देखने पहुंचे थे। संभव हो इससे उनमें रुचि जगे ओर अगले बरस के आयोजन में वे सुनने के लिए मंडप में भी बैठ जाएं।
उत्सव में बाहर से आए वक्ताओं के बारे में एक और बात। यह साहित्य गैर साहित्यिक आयोजनों में हमेशा होता है। एक आयोजन में उसे विषय से जुड़े सभी साहित्यकारों को तो नहीं बुलाया जा सकता है। जिन्हें बुलाओ, उनके विरोधी गुट हमेशा मुंह फुलाते हैं और जो हवा छोड़ने हैं, वह निश्चय ही आयोजन को असफल करने के लिए होती है। मतलब उन्हें बुलाया जाता तो कार्यक्रम सफल होता। उनके नहीं जाने से ही यह अधूरा रह गया। कोई अतिथि सही है या गलत कभी कभी इसका निर्णय मेजवान पर भी छोड़ना चाहिए। मेहमान तो अपना चरित्र दिखा ही देते हैं। इसके भी उदाहरण है। एक पैनलिस्ट को आमंत्रण मिला तो उसने मेजबान अधिकारी को फोन लगा कर पूछा-कार्यक्रम में मेरी बेटी भी आने वाली है, क्या उसे भी प्लेन का टिकट मिलेगा…अधिकारी महोदय ने अपने अधिनस्त को बोला जो लड़की आना चाहती है, उसके और गेस्ट के सर नेम और उम्र का अंतर आदि सब मिलान कर देखों कि क्या सच में वह अपनी बेटी को ही ला रहा है न…।

रायपुर साहित्य उत्सव में बुलाए गए मेहमान वक्ताओं को अच्छा खासा मानदेय मिला, प्लेन का किराया भी दिया गया। उस होटल, जिसमें एक रात का किराया कम से कम पांच साढ़े पांच हजार रुपए है, उसमें ठहराया गया। उन्हें खाने की सुविधा मिली। कार्यक्रम स्थल तक लाने ले जाने के लिए एसी वाली कार भी उपलब्ध कराई गई। लेकिन इसमें भी कुछ मेहमान ऐसे थे जो इस बात को लेकर नाराज थे कि होटल में इतनी बेहतरीन सुविधा तो थी, लेकिन लेकिन दारू की व्यवस्था नहीं थी। इसके लिए होटल में थोड़ा बहुत बवाल भी किया। पर होटल वाले ने साफ कह दिया कि उन्हें बस रखने और खिलाने की ही बुकिंग हुई है, पीने के लिए अपना खर्चना पड़ेगा।

ऐसी साहित्यिक आयोजनों में विचारों को लेकर वाद प्रतिवाद हमेशा से होता रहा है और होता भी रहेगा। लेकिन यदि कोई सरकार आगे साहित्य के हित में इतना बड़ा आयोजन करती है तो उसे दूसरे मुद्दे को लेकर नाकार देना उचित नहीं लगता है। छोटे से छत्तीसगढ़ ने देश के बड़े साहित्याकरों को बुलाया, इसको लेकर छत्तीसगढ़ का साहित्यप्रेमी गदगद है। इस आयोजन ने भविष्य में एक बेहतरीन साहित्यिक आयोजन की परंपरा का बीज बो दिया। जैसे

संजय स्वदेश
संजय स्वदेश

जयपुर का लिटरेचर फेस्टिवल देश दुनिया में नाम कर चुका हैं, वैसे छत्तीसगढ़ का भी होगा, इतना सपना देखने का हक तो छत्तीसगढ़ को भी बनता है।
नया रायपुर के जिस पुरखौती मुक्तांगन में यह भव्य आयोजन संपन्न हुआ, उस ओर मुख्यमार्ग से जाने वाली करीब सौ मीटर की दिवार पर छत्तीसगढ़ की लोक कला भित्ति चित्र शैली में यहां के राम वन गमन व अन्य पौराणिक लोक कथाओं के प्रसंगों के चित्र बने हैं और उसकी चार लाइन की छोटी सी व्याख्या दी गई है। उसमें दो भित्ति चित्र पर नजर पड़ी। उस की व्याख्या लिखी थी-इधर महीने बाद राजा दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें पृथ्वी के तमाम महाराज व साधु संतों को आमंत्रित किया गया। किंतु शिव को नहंी बुलाया गया…..इस तरह से राजा दक्ष ने ना चाहते हुए भी सत्ती का विवाह बड़े ही धूमधाम से भगवान शंकर से संपन्न हुआ। आसमान से फुल बरसे…। छत्तीसगढ़ में साहित्य का यह भव्य आयोजन निश्चय ही किसी यज्ञ से कम नहीं था। दिल्ली में बैठ कर इस यज्ञ को नकारने वालों की नाकारात्मक मंशा के बाद भी सफल हुआ। हालांकि यह युग शिव और दक्ष का नहीं है, इसलिए आसमान से फूल तो नहीं बरसे, लेकिन एक संवेदनशील साहित्यकार ने भविष्य में साहित्य की बेहतर संभावनाओं के प्रोत्साहन का आंकलन जरूर कर लिया।

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