रामजादा वाले बयान के विरोध के बहाने मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश

संसद में साध्वी कही जाने वाली निरंजना की क्या उपयोगिता?
संसद में साध्वी कही जाने वाली निरंजना की क्या उपयोगिता?

वेदप्रताप वैदिक

संसद में साध्वी कही जाने वाली निरंजना की क्या उपयोगिता?
संसद में साध्वी कही जाने वाली निरंजना की क्या उपयोगिता?

मोदी सरकार की एक महिला राज्य मंत्री अचानक सुर्खियों में आ गई हैं। उनके रामजादा वाले बयान को यह कहकर टाला जा सकता था कि यह तो महज तुकबंदी है। घटिया तुकबंदी। गनीमत है कि इस शब्द को हथियार बनाकर, जिन लोगों पर हमला किया गया है, वे गजब की परिपक्वता और संयम का परिचय दे रहे हैं। उन्होंने अपना कद ऊंचा कर लिया है, लेकिन जो लोग संसद में शोर मचा रहे हैं, वे साध्वी निरंजन ज्योति का इस्तीफा मांगकर अपना ही नुकसान कर रहे हैं। यदि प्रधानमंत्री अपनी महिला राज्य मंत्री को बर्खास्त कर देते तो इससे प्रतिपक्ष का क्या फायदा होता? उल्टे मोदी की छवि निखर जाती।

उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे की चमक बढ़ जाती, लेकिन यदि ज्योति मंत्रिमंडल में बनी रहेंगी तो प्रतिपक्षियों के पास एक ढोल हमेशा मौजूद रहेगा, जिसे वे जब चाहें पीट सकेंगे और भाजपा, संघ व मोदी के खिलाफ शोर मचा सकेंगे। प्रतिपक्षी दलों का फायदा इसी में है कि मोदी ने संसद के सदनों में जो अपील की है, उसे वे मान लें और जनता को यह दिखाएं कि वे संसद को ठप नहीं करना चाहते। वे लोकतंत्र का सम्मान करते हैं। ज्योति की भर्त्सना सत्तारूढ़ और विपक्षी, दोनों नेताओं ने कर दी है। अब मामला यहीं बंद क्यों न कर दिया जाए?

जो लोग निरंजन ज्योति के बयान को इतना ज्यादा तूल दे रहे हैं, वे यह मानकर चल रहे हैं कि वे सच्चे प्रतिपक्ष का धर्म निभा रहे हैं। ज्योति ने उन्हें तो कुछ नहीं कहा है। उस शब्द का प्रयोग उन्होंने किन्हीं और लोगों के लिए किया है, लेकिन प्रतिपक्ष उन पर इसलिए झल्लाया हुआ है कि वह भारतीय लोकतंत्र की मर्यादा की रक्षा करना चाहता है। यह तर्क कुछ हद तक ठीक हो सकता है, लेकिन प्रतिपक्ष का असली मकसद मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करना है। यदि नहीं तो प्रतिपक्षी सांसदों को सिर्फ साध्वी निरंजन ज्योति के इस्तीफे की बात नहीं करनी चाहिए थी बल्कि उसके साथ-साथ ऐसे कठोर कानून बनवाने की बात भी करनी थी, जिनके रहते ज्योति ही नहीं, प्रतिपक्ष के भी दर्जनों नेताओं के होश फाख्ता हो जाते।

कौन-सी पार्टी ऐसी है, जिसमें ज्योति जैसे नेता नहीं हैं या जो ज्योति की तरह घोर आपत्तिजनक शब्दों, वाक्यों और मुहावरों का इस्तेमाल नहीं करते? यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि ज्योति साध्वी हैं, महिला हैं और अनुसूचित जाति की हैं, इसलिए उनकी गलती की अनदेखी कर दी जानी चाहिए। यह भी कहा गया है कि वे ग्रामीण हैं, इसलिए ऐसे शब्दों का प्रयोग उनके लिए सहज है। किसी साधु के मुख से इस तरह के असभ्यतापूर्ण या अश्लील शब्द निकल सकते हैं; यह तथ्य किस बात का सूचक है? क्या यह इस बात का द्योतक नहीं कि ऐसे लोगों के अचेतन मन में जो शैतान बैठा रहता है, वह जब-तब साधु के सीने पर सवार हो जाता है? किसी शायर ने क्या खूब कहा है- ‘आए दिन होते रहते हैं, मंदिर-ओ-मस्जिद के झगड़े। दिल में ईटें भरी हैं और लबों पर खुदा होता है।’

यदि हमारे साधुओं की जुबान उनके काबू में नहीं है तो वे साधु कैसे हैं? स‌द्जनों से समाज के सामने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने की उम्मीद नहीं की जाती। और फिर हमारे पुरुष नेताओं को भी महिला नेता पीछे छोड़ रही हैं। ममता बनर्जी ने सार्वजनिक सभा में जिस अश्लील उपमा का कल प्रयोग किया, उसे मैं यहां दोहरा भी नहीं सकता। ऐसा नहीं है कि निरंजन ज्योति, जिन्हें हम साध्वी समझते हैं, ने ये शब्द पहली बार बोले हैं या अचानक उनके मुंह से फिसल गए हैं। वे अपने भाषणों में इसी तरह की भाषा का प्रयोग करने के लिए जानी जाती हैं। उनके पहले कुछ और साध्वियां भी अपनी वाणी के लिए कुख्यात रही हैं, लेकिन निरंजन ज्योति ने उन्हें भी मात दे दी है। ज्योति अनुसूचित जाति की हैं। इसका मतलब क्या है? अनुसूचित होना और अभद्र होना क्या एक-दूसरे के पर्याय हैं? हमारे अनुसूचित लोग तो विनम्रता और मितभाषा के पर्याय हैं। अनुसूचित होने के कारण वे दोषमुक्त नहीं हो सकतीं।

संसद के दबाव में यदि वे इस्तीफा दे भी देती हैं तो मेरी राय में उसका खास महत्व नहीं है। क्या वे मंत्री नहीं रहेंगी तो उनका मन बदल जाएगा? क्या वह शुद्ध हो जाएगा? क्या वह घृणामुक्त हो जाएगा? क्या वे ऐसी भूल दुबारा नहीं करेंगी? इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस्तीफे के बाद उनका मन शायद और अधिक घृणा से भर जाए। जरूरी तो यह है कि वे प्रायश्चित करें। क्षमा मांगना काफी नहीं है। संसद उन्हें क्षमा करे, यह तो ठीक है, लेकिन उन्हें खुद को क्षमा नहीं करना चाहिए। वे खुद कम से कम एक मास मौन रहें और कम से कम एक सप्ताह अन्न-जल का त्याग करें। किसी भी साधु-साध्वी के लिए यह प्रायश्चित कठोर नहीं है।

यह तर्क भी परीक्षा करने लायक है कि मोदी उस साध्वी के खिलाफ सख्त कार्रवाई इसलिए नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि वे हिंदुत्व के नाम पर चुनाव जीते हैं और उस साध्वी के कथन से हिंदुत्व का असली चेहरा प्रकट हो गया है। यह बात बिल्कुल निराधार है कि मोदी को लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व ने जीत दिलाई है। मोदी को तो सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने जिताया है, जिनकी सरकार भ्रष्टाचार की पर्याय बन गई थी। यह सही है कि मुसलमानों ने मोदी को वोट नहीं दिए, लेकिन जिन हिंदुओं ने उन्हें वोट दिए हैं, उसका आधार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी गुस्सा था।

जहां तक हिंदुत्व और घृणा का प्रश्न है, ‘हिंदुत्व’ की अवधारणा के पिता विनायक दामोदर सावरकर का ग्रंथ पढ़िए। उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि ‘हिंदू राष्ट्र ’ में किसी भी नागरिक के साथ मज़हब या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। यही बात जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान के बारे में कही थी, लेकिन संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए दोनों देशों में घृणा फैलाई जाती है। सच्चा हिंदुत्व तो एकात्म मानववाद में विश्वास करता है, वही एकात्म मानववाद उसका असली चेहरा है। जहां तक मोदी का सवाल है, उन्होंने पूरे चुनाव अभियान के दौरान और प्रधानमंत्री बनने के बाद आज तक कोई ऐसी बात नहीं कही है, जो अल्पसंख्यकों को चोट पहुंचाने वाली हो।

निरंजन ज्योति के मामले ने मोदी विरोधियों को ऐसी कुदाल थमा दी है, जिसका काम ही है गड़े मुर्दे उखाड़ना! सारा देश जिन मुद्‌दों को भुलाकर आगे बढ़ना चाहता है, अब उन्हीं मुद्‌दों को पीटना और उन्हें लेकर संसद का काम-काज ठप कर देना कहां तक ठीक है? प्रतिपक्षी दलों ने इस मु‌द्‌दे पर हंगामा मचाकर ठीक किया, लेकिन इस अति गंभीर मामले को वे सिर्फ मोदी विरोध की शक्ल दे देंगे तो यह मुद्‌दा भी छिछली राजनीति की भेंट चढ़कर समाप्त हो जाएगा। यदि इसके बहाने सांसदों के लिए आचार संहिता न सही, वाक् संहिता ही बन जाए तो लोकतंत्र का कुछ भला हो।

वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति
परिषद के अध्यक्ष
dr.vaidik@gmail.com

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