किराये के तंबू में भारतीय फिल्मों का कान फिल्मोत्सव

अजित राय

अजीत राय, वरिष्ठ पत्रकार
अजीत राय, वरिष्ठ पत्रकार

आस्ट्रेलियाई निर्देशक बज़ हलमान की फिल्म ‘द ग्रेट गट्सबाई’ के प्रदर्शनके साथ दुनिया के सबसे बड़े फिल्म मेले कान फिल्मोत्सव की शुरुआत हो रही है। 15 से 26 मई तक चलने वाले इस फिल्मोत्सव में भारत को ‘अतिथि देश’ का दर्जा दिया गया है। इसकी वजह यह बताई जा रही है कि इस बहाने कान फिल्मोत्सव भारतीय सिनेमा के – सौ साल पूरे होने की ऐतिहासिक घटना का उत्सव मना रहा है। यह समारोह कान फिल्मोत्सव का 66वां संस्करण है। ब्राजील और मिस्र के बाद भारत तीसरा देश है जो ‘गेस्ट कंट्री’ बना है। यह भी संयोग ही है कि महान फिल्मकार स्टीवन स्पीलबर्ग की अध्यक्षता वाली जूरी में अंग ली जैसे दिग्गजों के साथ अपनी विद्या बालन भी हैं। साथ ही शार्ट फिल्म जूरी में नंदिता दास भी हैं। क्लासिक और संरक्षित वर्ग में सत्यजीत राय की ‘चारुलता’(1964) का विशेष प्रदर्शन रखा गया है। और बस भारत की भागीदारी समाप्त। हमें इस सच्चाई को समझने की जरुरत है कि इस वर्ष कान फिल्मोत्सव के ‘आफिसियल सेलेक्शन’ में एक भी भारतीय फिल्म नहीं है। इस साल क्या, 1994 आखिरी साल था जब कोई भारतीय फिल्म कान में अधिकृत रुप से आमंत्रित की गई थी। वह फिल्म थी शाजी एन. करुण की ‘स्वाहम’ (मलयालम)।

यह बात भी समझने की है कि जैसे इंगलैड में आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज एक शहर का नाम है जहां इसी नाम से दुनिया के दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हैं। उसी तरह कान फ्रांस के नीस शहर के पास एक पर्यटक समुद्र तट या पर्यटक ग्राम हैं जहां दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म मेला लगता है। अब कोई आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज शहर में एक मकान किराये पर लेकर बिजनेस स्कूल खोल ले तो वह असली विश्वविद्यालय का हिस्सा तो नहीं हुआ। उसी तरह कोई मुंबईया प्रोड्यूसर यदि कान फिल्मोत्सव के दौरान किसी किराये के तंबू में अपनी फिल्म का प्रीमियर करे तो क्या यह माना जाएगा कि उसकी फिल्म कान फिल्मोत्सव में दिखाई गई? यह अर्धसत्य बहुत खतरनाक है।

पिछले दिनों इसी विषय पर बीबीसी ने एक शोधपरक रिपोर्ट जारी की है। उस रिपोर्ट में मुंबईया फिल्मकारों के अज्ञान का या चालाकी का मजाक उड़ाते हुए कहा गया है कि कान में जो ‘रेड कारपेंट’ की तस्वीरें यहां छपती है वह खरीदी गई होती है। शर्लिन चोपड़ा (कामसूत्र 3डी) और अमीषा पटेल (शार्टकट रोमियो) को गर्व हो रहा है कि उनकी फिल्म कान में दिखाई जा रही है।

जिस भारतीय फिल्मकार की कान में जय-जयकार की बहुत चर्चा होती रही है, उसकी भी सच्चाई कुछ और है। वे हैं अनुराग कश्यप। पिछले साल उनकी फिल्म ‘डाईरेक्टस फोर्टनाइट’ में दिखाई गई जो फ्रेंच फिल्मकारों के द्वारा संचालित एक समानांतर गतिविधि है।

शार्ट फिल्मों का घपला तो और बड़ा है। कान में ‘इंटरनेशनल विलेज’ या शार्ट फिल्म कार्नर में कोई भी पैसा देकर अपनी फिल्म दिखा सकता है। ऐसे कई भारतीय फिल्मकार जगह-जगह प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं, फोटो खिंचवा रहे हैं और झूठे दावे कर रहे हैं कि उनकी शार्ट फिल्म कान में चुन ली गई है।

फ्रांस के – शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री ज्यां जय ने वेनिस फिल्मोत्सव की प्रतिद्वंद्विता में ‘कान फिल्मोत्सव’ का सपना देखा था जिसे 1939 में होना था। 1932 में वेनिस फिल्मोत्सव शुरु हो चुका था। द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण 20 सितंबर 1946 को कान फिल्मोत्सव की शुरुआत हो सकी जो 1952 से आज तक मई के दूसरे-तीसरे सप्ताह में अनवरत जारी है। यहां यह भी याद दिलाना जरुरी है कि प्रथम कान फिल्मोत्सव में ही चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला था। इस फिल्म को ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा था। ‘नीचा नगर’ हिंदी की पहली और आखिरी फिल्म थी जिसे कान में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला था। इस पुरस्कार को अब ‘पाम डि ओर’ कहते है।

कान फिल्मोत्सव के 66 सालों के इतिहास पर गौर करें तो मुख्य प्रतियोगिता खंड में चुनी गई भारतीय फिल्मों की संख्या मुश्किल से दर्जन भर होगी। हम याद करना चाहें तो सत्यजीत राय की ‘पाथेर पांचाली’ (1955) को याद कर सकते हैं जिसे 1956 में ‘पाम डी ओर’ अवार्ड मिला था। मृणाल सेन की ‘खारिज’ को 1983 में स्पेशल जूरी अवार्ड और मीरा नायर की ‘सलाम बांबे’ को 1988 में ‘कैमरा डि ओर’ एवं आडियंस अवार्ड मिला था।

ग्रैंड थियेटर लूमियेर में कान फिल्मोत्सव के उद्द्याटन समारोह में अतिथि देश के रुप में भारत की घोषणा के साथ ही क्या करोड़ों भारतीयों को यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि दुनिया में हर साल सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले इस देश की कोई उपस्थिति तक कान में क्यों नहीं है। भारत सरकार हर साल वहां करोड़ों रुपये खर्च करके अपना पंडाल लगाती है जिसका कोई फायदा भारतीय फिल्मकारों को नहीं हुआ है। 6 से 12 करोड़ रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। 19 मई को हमारी सरकार वहां एक भव्य डिनर आयोजित कर रही है।

कान फिल्मोत्सव का बजट 20 मिलियन यूरो (लगभग 142 करोड़ रुपये ) है। इसमें दुनियाभर से 27,710 डेलीगेट और 4770 मीडियाकर्मी भाग लेते हैं। यह आंकड़ा पिछले साल का है। 1500 स्क्रीनींग में10,500 के करीब सिनेमा से जुड़े कलाकार भाग लेते हैं। यह बताना इसलिए जरुरी है कि भारत के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में हर कोई इसे कान फिल्मोत्सव की तरह प्रतिष्ठित दर्जा दिलाने के बड़बोले दावे करता है। हालत यह है कि पिछले सौ सालों में न ही हमारी फिल्मों से तथा पिछले 60 सालों में नहीं हमारे फिल्मोत्सवों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रतिष्ठा अर्जित कर सकी है। कान, बर्लिन या वेनिस में आप किसी से पूछें तो वह केवल सत्यजीत राय का नाम लेगा। हिंदी सिनेमा के किसी भी निर्देशक, अभिनेता या अभिनेत्री को आम तौर पर विश्व स्तर पर कोई नहीं जानता। केवल ओमपुरी, इसके अपवाद हैं जिनके खाते में 26 अंतर्राष्ट्रीय फिल्में हैं। कान फिल्मोत्सव की उदघाटन फिल्म ‘दि ग्रेट गट्सबाई’ में नगण्य सी भूमिका के लिए अभिनेता बच्चन खुश हो सकते हैं। कान फिल्मोत्सव के निर्देशक थेरी फ्रीमाक्स की सुने जो हमें बता रहे हैं कि नई पीढ़ी के भारतीय फिल्मकारों से उम्मीदें हैं। ‘सर’ कहां हैं उम्मीदें ?

इस बार कान में जहां रोमन पोलांस्की की ‘वीनस इन फुर’, सोफिया कपोला की ‘द ब्लींग रींग’, असगर फरहदी की ‘द पास्ट’ सहित प्रतियोगिता खंड में21 और ‘अनसर्टेन रिगार्ड’ में विश्व की चुनी हुई 18 फिल्मों का प्रदर्शन हो रहा है वही अनुराग कश्यप की प्रोड्यूस की गई ‘अगली’ ‘डब्बा’ और ‘मानसून शूट आउट’ जैसी फिल्मों का समानांतर प्रदर्शन क्या महत्व रखता है। मिडलाइट स्क्रीनींग में ‘बांबे टाकीज’ भी ज्यादा देर तक नहीं टिकेगी। क्या हमें इतने भर से खुश हो जाना चाहिए ?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है. कान फिल्मोत्सव से अभी – अभी लौटे हैं. नवभारत टाइम्स में यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है. )

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