आजतक में रिपोर्टिंग के लिए अजीत अंजुम की ललक !

ajit anjum tv journalist
युवा अजीत अंजुम

कई बार लगता था कि काश मुझे भी आजतक के लिए रिपोर्टिंग का मौका मिले : अजीत अंजुम
अजीत अंजुम,मैनेजिंग एडिटर,न्यूज24 के यादों के झरोखे से(भाग-6)

जिंदगी तो संघर्षों की सहस्त्रधारा से ही निकलती है और आगे बढ़ती रहती है . मुजफ्फरपुर में था तो किसी अखबार में जिला संवाददाता बनने के लिए संघर्ष कर रहा था . पटना पहुंचा तो किसी अखबार में स्टाफ रिपोर्टर बनने के लिए संघर्ष कर रहा था . गुवाहाटी पहुंचा तो पांव जमाने के लिए जूझ रहा था और दिल्ली में तो आपका वजूद ही संघर्षों की बुनियाद पर टिका है . सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी . दिल्ली में मेरे लिए संघर्ष के मायने साल दर साल बदलते रहे. आज भी संघर्ष ही कर रहा हूं. नौकरी करते रहना और बचते –बचाते हुए टिके रहना जिंदगी का सबसे बड़ा संघर्ष है , वो भी तब , जब हालात के चक्रव्यूह में घिरे हों .

किसी को लग सकता है कि लंबी गाड़ी है , चार कमरे का मकान है , लखटकिया नौकरी है , न्यूज चैनल में ऊंचा ओहदा है , सौ – पचास लोग जानते – पहचानते हैं . सभा सेमिनारों में भाषण – वाषण देने के लिए बुलाया जाता है . दिन भर बहुतेरे लोग यस सर …यस सर करते हैं …गाहे – बगाहे चैनल पर ज्ञान बांचते रहते हैं … फिर संघर्ष कैसा …लेकिन ये तो हाथी के दांत हैं , जो दिखने – दिखाने भर के लिए हैं . भीतर से कितने डरे हुए होते हैं हम….जहां हैं वहा टिके रहने के लिए कितने संघर्ष करते हैं हम . जहां हैं , वहां से आगे बढ़ने के लिए कितने संघर्ष करते हैं हम ..और सबसे चुनौती भरा होता है – आंतरिक संघर्ष . अपने भीतर पैदा होते सवालों का हम हर रोज सामना करते हैं . कभी उन सवालों को जेहन से खुरचकर निकालने की कोशिश करते हैं तो कभी उन सवालों का कद इतना विराट हो जाता है कि उसके सामने हम सरेंडर कर देते हैं और यही जीवन है मानकर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं . हाल में देखी फिल्म सिंघम में अजय देवगन का संवाद याद आता है – मेरी जरुरतें कम हैं , इसलिए मुझमें दम है …लेकिन हमने तो अपनी जरुरतों और महत्वाकांक्षाओं की चादर इतनी फैला ली है कि हम कितने बेदम हो गए हैं। .

हम हर रोज संघर्ष करते हैं . नौकरी बचाने का संघर्ष …बाजार में टिके रहने का संघर्ष , न्यूज चैनल में आइडिया के स्तर पर कुछ बेहतर करने के लिए संघर्ष …अपने साथियों और सहयोगियों का भरोसा जीतने का संघर्ष … अपने को नियंत्रित रखने का संघर्ष …सोच और आइडिया के स्तर पर दिवालियापन के अहसास से उबरने के लिए संघर्ष …दूसरे चैनल ने हमसे अच्छा कैसे कर लिया , हम क्यों चूक गए …हारने के बाद जीतने का हौसला वापस पाने के लिए संघर्ष ….टीआरपी का संघर्ष …सबकुछ अच्छा और बेहतर करने के बाद शाबासी के दो शब्द सुनने के लिए संघर्ष …संघर्ष के न जाने कितने लेयर हैं और हर लेयर से हम हर रोज टकराते हैं . कभी जख्मी होते हैं , कभी दुखी होते हैं , कभी हताश होते हैं , कभी बिखरने की कगार पर पहुंचकर खुद को समेटने की जद्दोजहद करते हैं …कई बार आप जो होते हैं , वो दुनिया आपको समझती नहीं ..जो आप नहीं होते हैं , दुनिया आपको वो मान लेती है..तब आप अपनी ही बनती बिगड़ती छवियों से छायायुद्ध भी करते हैं . अपने भीतर ही अपने आप से लड़ते हैं . गिरते हैं . टूटते हैं . बिखरते हैं और फिर लंगड़ाते हुए खड़े होते हैं क्योंकि चलना तो है ही …

इस शहर में इतने दोस्त न मिले होते हो जिंदगी की गाड़ी पता नहीं किस प्लेटफार्म पर रुकती और इतने अशुभचिंतक न होते तो भीतर से एक जिद पैदा न होती कि यहीं टिकना है और कुछ करना है …मैं जानता हूं कि इस शहर में मेरे जितने शुभचिंतक हैं , उससे कम अशुभचिंतक नहीं . कभी उन अशुभचिंतकों की भी बात करुंगा लेकिन फिलहाल नहीं. मैं मानता हूं कि दोस्ती सबसे बड़ी पूंजी होती है और लकी हैं आप अगर आपके चार – पांच भी अच्छे दोस्त हैं . मैं इस मामले में लकी हूं . दोस्तों ने कई मौकों पर मदद की . वरना अशुभकामनाओं के बोझ से दबकर न जाने मैं कहां पहुंच गया होता .

चुनौतियां जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है . चुनौतियों की कई किस्में होती हैं और उन तमाम तरह की चुनौतियों के बीच खुद को टिकाए रहना सबसे बड़ी चुनौती . कई बार खुद की नजर में खुद को साबित करने की चुनौती तो कभी दूसरों की नजर में खुद को साबित करने की चुनौती . कभी आपके इर्द – गिर्द घेरा कस चुके रंगा सियारों और बघनखा पहने दुश्मनों के चक्रव्यूह से बच निकलने की चुनौती. ऐसी चुनौतियों का सामना मैं भी अक्सर करता रहा हूं . मैं जानता हूं कि कब – कब शिकार होते होते बचा और कब – कब शिकारी बनकर बचा .इस पर बात फिर कभी …

फिर लौटते हैं अतीत की तरफ …1995-96-97-98 -99 का वो दौर मुझे अब भी याद है जब इलेक्ट्रानिक मीडिया का जन्म हो रहा था ….डीडी पर आधे घंटे की शक्ल में आने वाला ‘आजतक’ देश में सबसे चर्चित टीवी न्यूज बुलेटिन हुआ करता था . ‘ सुबह आजतक’ की भी उन्हीं दिनों शुरुआत हुई थी . दिबांग , संजय पुगलिया , शैलेष, अजय चौधरी , आशुतोष , दीपक चौरसिया , गोविंद पंत राजू , राजेश बादल , विजय विद्रोही , मिलिंद खांडेकर , अलका सक्सेना , रंजन झा ( माधव राव सिंधिया के साथ हवाई हादसे में मौत हो गई ) , सुजीत झा , जितेन्द्र दीक्षित, प्रभात शुंगलु, धीमंत पुरोहित , आलोक जोशी , मृत्युंजय कुमार झा , पूनम शर्मा , संजय सलिल , अपर्णा काला , अंजु गुलेरिया ( आज अंजू पंकज हैं ) , नगमा , सिक्ता देव जैसे कई नाम दर्शकों के जेहन में अपनी जगह बना रहे थे .

मैं बीएजी फिल्मस में था . जी न्यूज , डीडी समेत कई चैनलों के लिए कई कार्यक्रमों का निर्माण और निर्देशन कर रहा था . फिर भी इनमें से कई चेहरे मुझे बहुत आकर्षित करते थे. कई बार लगता था कि काश मुझे भी आजतक के लिए रिपोर्टिंग का मौका मिले . मुझे भी लोग पहचानें . लेकिन मैंने कभी ख्वाहिशों को कभी परवान नहीं चढ़ने दिया या फिर उन ख्वाहिशों को मुकाम तक पहुंचाने के लिए कोई कोशिश नहीं की . नौकरी मांगने को लेकर मेरे भीतर हमेशा एक झिझक थी और तब तक अपने भीतर कुछ ऐसे तंतु जागृत हो चुके थे जो मुझे किसी दफ्तर में जाकर नौकरी मांगने से रोकते थे . भीतर से एक कमिटमेंट भी था बीएजी फिल्मस को लेकर कि कभी कभी मन उचट भी जाता था तो भी वहां से जाने के दिल नहीं चाहता था .

बीएजी फिल्म ज्वाइन करने से पहले मैंने टीवी में नौकरी पाने की एक नाकाम कोशिश की थी . 1994 का कोई महीना रहा होगा . उन दिनों अजीत शाही से मिला था . अजीत शाही उन दिनों बीआईटीवी लांच करने की तैयारी में जुटे थे . टीवी न्यूज इंडस्ट्री ने तब कोई शक्ल अख्तियार नहीं किया था लेकिन अजीत शाही बहुत ही हाई फ्लाइंग एक्जीक्यूटिव प्रोडयूसर बनकर बीआईटीवी के हिस्सा बने थे . उनसे पंचशील एनक्लेव के दफ्तर में मेरी बहुत दिलचस्प मुलाकात हुई थी . मै शायद अतुल सिन्हा ( अभी जी यूपी के आउटपुट इंचार्ज हैं ) के साथ बीआईटीवी के उस टेंपररी दफ्तर तक पहुंचा था . उन दिनों जनसत्ता में काम करने वाले राजेश जोशी ( अब बीबीसी में हैं ) मेरे बेहद करीबी दोस्त हुआ करते थे ( आज भी हैं , बात कम होती है जरा) . राजेश अजीत शाही के भी दोस्त थे . अजीत शाही का उन दिनों पूरे शहर में जलवा था . मुझे लगता है कि जिन दिनों अखबारों में चार – पांच हजार की नौकरी बड़ी बात मानी जाती थी , उन दिनों अजीत शाही 25-30 हजार की नौकरी और एस्टीम कार से नवाजे गए थे . यहां तक कि इंडिया टुडे में छपे एक फीचर में भी उनका खास तौर से जिक्र किया गया था .

अजीत लंबे समय तक इंडियन एक्सप्रेस में काम कर चुके थे और बेहद प्रतिभाशाली रिपोर्टर के तौर पर उनकी पहचान थी . अंग्रेजी में काम करते हुए भी अंग्रेजीदां माहौल की तमाम बंदिशों और दिखावटों से अलग अपनी बनायी दुनिया में अपने ढंग से जीने वाले अजीत शाही . उन दिनों उनका सेंसेक्स इतना ऊंचा था कि हम बहुत सहमे हुए उनसे मिलने पहुंचे थे और जैसा की हमे पहले से ही अंदाजा था कि हम उनके खांचे में फिट नहीं होगे …..हमारे सामने उनकी नाटकीय अंदाज में इंट्री हुई और उनकी आंखों की भाषा पढ़कर हम समझ गए कि हम उनके खांचे के लिए अनफिट हैं ….हम वहां से बैरंग लौट गए थे . हमें तो वहां नौकरी नहीं मिली थी लेकिन जिन्हें मिली थी , वो कुछ ही महीनों बाद ( या शायद साल – डेढ़ साल बाद ) तनख्वाह के लिए अनशन और धरने पर बैठे थे . चैनल रुपी शिशु अभी पालने से बाहर भी नहीं आया था कि उसे आईसीयू में जाना पड़ा और एक बार जो आईसीयू में गया तो फिर वापस नहीं लौटा .
( ये कहानी भी फिर कभी )

अजीत शाही आज मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं . तेज तर्रार पत्रकार हैं और इन दिनों तहलका में एडिटर एट लार्ज हैं. मैं मानता हूं अजीत शाही की प्रतिभा का सही इस्तेमाल या तो हुआ नहीं या वो नहीं कर पाए. अभी उनमें अपार क्षमता है . घुमंतु और फक्कड़ किस्म के अजीत शाही अंग्रेजी वाले होकर भी फकीराना हैं . मस्त मलंग हैं . उनसे अगर आप एक दो घंटे सत्संग कर लें तो ताउम्र नहीं भूल पाएंगे .. मैं आज भी तहलका में अजीत का लिखा जरुर पढ़ता हूं . दो – चार महीने में भी बात होती है तो एक ताजगी का अहसास होता है . मेरे साथ संवाद में वो बोलते कम हैं , ठहाके ज्यादा लगाते हैं . सच कहूं तो मैं उनके ठहाके सुनने और उससे खुद को रीचार्ज करने के लिए कभी – कभी उनसे बात करता हूं. उनकी कही बातें कई महीनों तक या कहें तो सालों तक जेहन में दर्ज रहती हैं . एक ही कमी है उनमें.. अनुशासन की कमी …..सिस्टमेटिक नहीं हैं ….( अजीत शाही के बारे में भी फिर कभी ).

1994 के आखिरी महीनों में मैंने बीएजी फिल्मस में ज्वाइन किया और फिर यहां रच – बस गया लेकिन कई बार ‘ आजतक’ अपनी ओर खींचता था . मेरे बहुत से दोस्तों को मेरी बेहतर स्थिति से इर्ष्या होती थी और मुझे आजतक में काम करने वालों से …लेकिन सच ये है कि मैंने 2002 के पहले कभी ‘आजतक’ में नौकरी पाने की कोई कोशिश नहीं की …वजह मैं पहले ही बता चुका हूं .

‘आजतक’ जब चैनल की शक्ल में लांच हुआ , तब सबसे तेज चैनल के रुप में उसे जबरदस्त कामयाबी मिली. मेरे कई जानने वाले ‘आजतक’ पहुंचे . मैं उन दिनों बीएजी फिल्मस में संपादकीय प्रमुख था और डीडी के लिए आधे घंटे का बुलेटिन ‘रोजाना’ के नाम से प्रोडयूस किया करता था . प्रोडक्शन हाउस होने के नाते हम तमाम तरह की सीमाओं में बंधे थे . हमने युवाओं की टीम बनायी और एक बेहतर बुलेटिन निकालने की कोशिश करते रहे . सुकेश रंजन ( इन दिनों आईबीएन -7 के राजनीतिक संपादक ) , मनीष कुमार ( इन दिनों आजतक के आउटपुट इंचार्ज ) , समरेन्द्र सिंह , सुशील बहुगुणा ( इन दिनों एनडीटीवी में ) , प्रशांत टंडन, सौमित सिंह , धीरन्द्र पुंडीर ( आजतक में ) , आस्था यादव , शांता सिंह , रश्मि शर्मा ( शायद एबीपी में हैं ) , सीमा सिंह , सुशील सिंह , राजकुमार पांडेय ( सहारा समय में हैं ) , अरुण नौटियाल ( इन दिनों एबीपी न्यूज के आउटपुट इंचार्ज हैं ), अतुल सिन्हा ( जी यूपी के आउटपुट हेड) , अनवर जमाल अशरफ ( इन दिनों जर्मन रेडियो में ), अभिषेक श्रीवास्तव ( एनटीटीवी इंडिया मुंबई ब्यूरो के इंचार्ज ) , प्रणय यादव ( टीवी -9 में ) , आशुतोष अग्निहोत्री ( इन दिनों आजतक में ) सलीम सैफी समेत कई लोग उस टीम का हिस्सा थे . अनवर जमाल चंडीगढ़ में भाषा के ब्यूरो से हमारे यहां आया था और अभिषेक शायद दैनिक भास्कर से . प्रणय यादव नवज्योति से हमारे यहां आए थे .

ये सब उत्साही लड़के थे और टीवी में कुछ करना चाहते थे . मुझे अगर ठीक से याद है तो सुकेश रंजन उन दिनों शायद दिल्ली यूनिवर्सिंटी से लॉ कर रहा था लेकिन उसमें बहुत स्पार्क था . कम उम्र में ही राजनीतिक समझ थी और रिपोर्टर बनने का जुनून . मुझे याद है कि शुरुआती दिनों में सुकेश कुछ देर क्लास करता था और हमारे यहां पार्ट टाइम काम करने आता था . . मैंने उसे कहा था कि या तो लॉ करो या फिर यहां दिन रात जुटकर काम करो . मुझे याद नहीं कि उसने लॉ की पढ़ाई पूरी की या नहीं लेकिन इतना याद है कि उसने दिन रात एक कर दिया था .एक बार मैं मुजफ्फरपुर सुकेश के घर भी गया था . उसके पिता अंग्रेजी के प्रोफेसर थे और अपने बेटे के भविष्य के लेकर बहुत चिंतित थे . मैंने उन्हें काफी कन्वींस किया था कि सुकेश में काफी दम है और ये बहुत आगे जाएगा . उसके पिता आसानी से नहीं माने थे लेकिन आज अपने बेटे की तरक्की देख जरुर खुश होते होंगे.

‘रोजाना’ के दफ्तर में कंप्यूटर पर सुशील बहुगुणा , अरुण नौटियाल और एक दो को छोड़ किसी को टाइपिंग आती नहीं थी. हमारे दफ्तर में गिनती के तीन या चार कंप्यूटर थे . सो सभी हाथ से लिखते थे और सुकेश की कॉपी तो मुझे आज भी याद है . सुशील , प्रशांत और अरुण नौटियाल शायद बीआईटीवी से आए थे . धीरेन्द्र पुंडीर माफिया पर एक्सपर्ट था. इन सबमें मैं ही सबसे झक्खी और गुस्सैल था . मेरी आक्रामकता और उग्रता से ये सब कई बार नाराज होते , चिढ़ते , परेशान होते लेकिन फिर भी मुझे झेलते . ये सब ‘रोजाना’ की रीढ़ थे. कभी ये सब मुझसे नाराज होते , कभी मैं इन पर गुस्सा उतारता . इनकी न जाने कितनी रातें एक दूसरे के यहां बीती होंगी और उन रातों में डिनर के साथ मेनू में मैं भी रहा होऊंगा…मटन – चिकन के साथ अजीत अंजुम के किस्से बहुत जायकेदार होते होंगे , इसका अहसास है मुझे. ( उस समय के दर्जनों किस्से हैं उन किस्सों पर फिर कभी ) .
इनमें से कुछ ऐसे भी हैं , जो आजतक चैनल शुरु होते ही वहा चले गए . उन दिनों सिर्फ जी न्यूज हुआ करता था . कुछ ही दिनों में आजतक नया चैनल होकर भी जी न्यूज को काफी पीछे छोड़कर आगे निकल गया . उदय शंकर आजतक के चैनल हेड थे . बेहद डायनेमिक , आक्रामक , तेज तर्रार और किलर इंस्टींक्ट वाले उदय शंकर के नेतृत्व में ‘आजतक’ ने सफलता के सारे कृतिमान तोड़ दिए . टीवी न्यूज दर्शकों पर ऐसी छाप छोड़ी कि ‘आजतक’ ने ‘ ZEE NEWS ’ को काफी पीछे छोड़ दिया . एक दिन मैं भी आजतक गया …पहले देखने गया कि कैसे चलता है एक न्यूज चैनल और कुछ महीनों बाद नौकरी करने भी गया ….( ये कहानी जारी है )

नोट- आत्मकथा बड़े लोग लिखते हैं इसलिए इसे संस्मरण ही समझा जाए . फेसबुक पर एक स्टेटस लिखने से इसकी शुरुआत हुई और यहां तक लिख दिया है . कम वक्त में जितना याद आया , लिख दिया ..कुछ बातें और याद आएंगी तो लिखूंगा .

(स्रोत -फेसबुक)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.