घी गेहूँ नहीं रोज़गार चाहिए साहब

dr.neelam mahindra
डाँ नीलम महेंद्र

डॉ नीलम महेंद्र-

डाँ नीलम महेंद्र
डाँ नीलम महेंद्र

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और चुनाव किसी भी लोकतंत्र का महापर्व होते हैं ऐसा कहा जाता है। पता नहीं यह गर्व का विषय है या फिर विश्लेषण का कि हमारे देश में इन महापर्वों का आयोजन लगा ही रहता है ।

कभी लोकसभा कभी विधानसभा तो कभी नगरपालिका के चुनाव। लेकिन अफसोस की बात है कि चुनाव अब नेताओं के लिए व्यापार बनते जा रहे हैं और राजनैतिक दलों के चुनावी मैनाफेस्टो व्यापारियों द्वारा अपने व्यापार के प्रोमोशन के लिए बाँटे जाने वाले पैम्पलेट !और आज इन पैम्पलेट , माफ कीजिए चुनावी मैनिफेस्टो में लैपटॉप स्मार्ट फोन जैसे इलेक्ट्रौनिक उपकरण से लेकर प्रेशर कुकर जैसे बुनियादी आवश्यकता की वस्तु बाँटने से शुरू होने वाली बात घी , गेहूँ और पेट्रोल तक पंहुँच गई।कब तक हमारे नेता गरीबी की आग को पेट्रोल और घी से बुझाते रहेंगे?सबसे बड़ी बात यह कि यह मेनिफेस्टो उन पार्टीयों के हैं जो इस समय सत्ता में हैं।

राजनैतिक दलों की निर्लज्जता और इस देश के वोटर की बेबसी दोनों ही दुखदायी हैं। क्यों कोई इन नेताओं से नहीं पूछता कि इन पांच सालों या फिर स्वतंत्रता के बाद इतने सालों के शासन में तुमने क्या किया? उप्र की समाजवादी पार्टी हो या पंजाब का भाजपा अकाली दल गठबंधन दोनों को सत्ता में वापस आने के लिए या फिर अन्य पार्टियों को राज्य के लोगों को आज इस प्रकार के प्रलोभन क्यों देने पड़ रहे हैं?

लेकिन बात जब पंजाब में लोगों को घी बाँटने की हो तो मसला बेहद गंभीर हो जाता है क्योंकि पंजाब का तो नाम सुनते ही जहन में हरे भरे लहलहाते फसलों से भरे खेत उभरने लगते हैं और घरों के आँगन में बँधी गाय भैंसों के साथ खेलते खिलखिलाते बच्चे दिखने से लगते हैं। फिर वो पंजाब जिसके घर घर में दूध दही की नदियाँ बहती थीं , वो पंजाब जो अपनी मेहमान नवाज़ी के लिए जाना जाता था जो अपने घर आने वाले मेहमान को दूध दही घी से ही पूछता था आज उस पंजाब के वोटर को उन्हीं चीजों को सरकार द्वारा मुफ्त में देने की स्थिति क्यों और कैसे आ गई?

सवाल तो बहुत हैं पर शायद जवाब किसी के पास भी नहीं।जब हमारा देश आजाद हुआ था तब भारत पर कोई कर्ज नहीं था तो आज इस देश के हर नागरिक पर औसतन 45000 से ज्यादा का कर्ज क्यों है?जब अंग्रेज हम पर शासन करते थे तो भारतीय रुपया डालर के बराबर था तो आज वह 68.08 रुपए के स्तर पर कैसे आ गया?हमारा देश कृषी प्रधान देश है तो स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी आजतक किसानों को 24 घंटे बिजली एक चुनावी वादा भर क्यों है?

चुनाव दर चुनाव पार्टी दर पार्टी वही वादे क्यों दोहराए जाते हैं?क्यों आज 70 सालों बाद भी पीने का स्वच्छ पानी, गरीबी और बेरोजगारी जैसे बुनियादी जरूरतें ही मैनिफेस्टो का हिस्सा हैं?हमारा देश इन बुनियादी आवश्यकताओं से आगे क्यों नहीं जा पाया?और क्यों हमारी पार्टियाँ रोजगार के अवसर पैदा करके हमारे युवाओं को स्वावलंबी बनाने से अधिक मुफ्त चीजों के प्रलोभन देने में विश्वास करती हैं?

यह वाकई में एक गंभीर मसला है कि जो वादे राजनैतिक पार्टियाँ अपने मैनिफेस्टो में करती हैं वे चुनावों में वोटरों को लुभाकर वोट बटोरने तक ही क्यों सीमित रहते हैं।चुनाव जीतने के बाद ये पार्टियाँ अपने मैनिफेस्टो को लागू करने के प्रति कभी भी गंभीर नहीं होती और यदि उनसे उनके मैनिफेस्टो में किए गए वादों के बारे में पूछा जाता है तो सत्ता के नशे में अपने ही वादों को ‘चुनावी जुमले ‘ कह देती हैं।

इस सब में समझने वाली बात यह है कि वे अपने मैनिफेस्टो को नहीं बल्कि अपने वोटर को हल्के में लेती हैं।
आम आदमी तो लाचार है चुने तो चुने किसे आखिर में सभी तो एक से हैं। उसने तो अलग अलग पार्टी को चुन कर भी देख लिया लेकिन सरकारें भले ही बदल गईं मुद्दे वही रहे।

पार्टी और नेता दोनों ही लगातार तरक्की करते गए लेकिन वो सालों से वहीं के वहीं खड़ा है। क्योंकि बात सत्ता धारियों द्वारा भ्रष्टाचार तक ही सीमित नहीं है बल्कि सत्ता पर काबिज होने के लिए दिखाए जाने वाले सपनों की है।
मुद्दा वादों को हकीकत में बदलने का सपना दिखाना नहीं उन्हें सपना ही रहने देना है।

चुनाव आयोग द्वारा चुनाव से पहले आचार संहिता लागू कर दी जाती है। आज जब विभिन्न राजनैतिक दल इस प्रकार की घोषणा करके वोटरों को लुभाने की कोशिश करते हैं तो यह देश और लोकतंत्र दोनों के हित में है कि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करे कि पार्टियाँ अपने चुनावी मेनिफेस्टो को पूरा करें और जो पार्टी सत्ता में आने के बावजूद अपने चुनावी मेनिफेस्टो को पूरा नहीं कर पाए वह अगली बार चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दी जाए।

जब तक इन राजनैतिक दलों की जवाबदेही अपने खुद के मेनीफेस्टो के प्रति तय नहीं की जाएगी हमारे नेता भारतीय राजनीति को किस स्तर तक ले जाएंगे इसकी कल्पना की जा सकती है। इस लिए चुनावी आचार संहिता में आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ नए कानून जोड़ना अनिवार्य सा दिख रहा है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.