खुले पत्र के जवाब में तहलका के कॉलमिस्ट विनीत कुमार का खुला पत्र

खुले पत्र के जवाब में तहलका के कॉलमिस्ट विनीत कुमार का खुला पत्र, संदर्भ तरुण तेजपाल यौन उत्पीड़न मामला

मीडियाखबर में “युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के नाम खुला पत्र, संदर्भ तरुण तेजपाल यौन उत्पीडन ” शीर्षक से एक पोस्ट प्रकाशित हुई..समय की कमी के कारण सुबह से इस पोस्ट के वर्चुअल स्पेस पर खुले रहने के बावजूद अब जवाब देना हो पाया. जाहिर है, खुले पत्र का जवाब भी खुला है सो आप सब भी पढ़ें.

साथी अखिलेशजी,

मेरी पोस्ट पढ़ने और उस पर इतनी गंभीरता से अपनी बात रखने के लिए आपका बेहद शुक्रिया. मेरे नाम से खुला पत्र वर्चुअल स्पेस पर सुबह से ही खुला रखने के बावजूद इसे अभी पढ़ पाया. मोबाईल से छिटपुट एफबी कमेंट, लाइक के अलावे इसे दिन की व्यस्तता की वजह से नहीं पढ़ पाया. खैर,

मैं आपके इस पत्र का पंक्ति दर पंक्ति कितना जवाब दे पा रहा हूं, ये तो तय नहीं कर सकता. संभव है कुछ चीजें छूट जाए लेकिन दो-तीन प्रमुख आपकी असहमतियों और धारणा को लेकर जरुर अपनी बात रखना चाहूंगा.

tehlkaपहली बात तो ये कि जिस तरह शोमा चौधरी ने इस पूरे प्रकरण को तहलका का अंदुरुनी मामला बताया क्या मेरे लिखे में यही बात दोहरायी गई है या फिर इसका मैंने कहीं समर्थन किया है ? अगर उनकी तरह हम भी इसी तरह मान रहे होते तो आपके सहित उन दर्जनों टिप्पणीकारों की बात का जवाब नहीं लिख रहे होते जो वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय हैं. मेरी तो छोड़िए, तहलका के लगभग आधे दर्जन लोग फेसबुक पर इस घटना के बाद भी स्वाभाविक रुप से सक्रिय हैं और मैंने उनकी टिप्पणी में भी कहीं नहीं देखा कि तरुण तेजपाल का बचाव, महिला पत्रकार के प्रति असहमति और इस पूरे मामले को अंदुरुनी बताकर चुप्प मार गए हैं. संभव है कि वो आप जैसे रेडिकल होकर अपनी बात नहीं कर रहे हैं जो आप खुद भी देख रहे हैं लेकिन बेशर्मी से तरुण तेजपाल का समर्थन और महिला पत्रकार से असहमत भी नहीं हो रहे हैं जैसा कि आमतौर पर होता रहा है. क्या इन दोनों स्थितियों के बीच सोच का कोई सिरा काम नहीं कर रहा…हम रेडिकल होकर सपाट होने की दशा में इस कदर बढ़ जाएं कि सर-दर बराबर करके ही बात करें. क्या इन पत्रकारों को इतना भी कन्सीडर नहीं किया जा सकता कि इन्होंने अपनी जमीर को ताक पर रखकर खुला समर्थन के बजाय तहलका( एक मीडिया संस्थान) और तरुण तेजपाल एक व्यक्ति बार-बार अलग करके देखने की लोगों से अपील की ?

अब रही बात मेरी..जिस शख्स की चर्चा करते हुए आपने इतनी बार युवा मीडिया विश्लेषक और तहलका का कॉलमनिस्ट का प्रयोग किया है कि पूरे पत्र में पूर्ण-विराम और कौमा लगाए जाने की संख्या इससे थोड़ी ही कम होगी. फिर भी, आपकी बातचीत से ये साफ निकलकर आया जैसा कि मेरे करीब डेढ़ दिन तक इस मामले में कुछ भी नहीं लिखे जाने के कारण कयास भी लगाए जाते रहे और इनबॉक्स और फोन के जरिए हम तक पहुंचे भी कि चूंकि मैं इस पत्रिका का कॉलमनिस्ट हूं इसलिए इस मामले में चुप हूं. मैं तो इस पत्रिका के लिए सास-बहू सीरियलों, एफ एम रेडियो और विज्ञापनों पर लिखता हूं जिसे कि पढ़े-लिखे समाज का अति गंभीर समाज सिरे से नकारता आया है..अब जिसके लिए ये माध्यम ही कूड़ा है तो भला लिखनेवाले को कितना गंभीर माना-समझा जाए ? जब इस तरह के संदेश और फोन मेरे पास आ रहे थे, उसी समय मेरे दिमाग में सवाल आया कि इस पत्रिका के लिए आनंद प्रधान जो कि खासतौर से न्यूज मीडिया पर ही लिखते हैं, उनकी चुप्पी जो कि अब तक बरकरार है, लोग किस तरह से ले रहे होंगे. मेरे साथ तो सास-बहू के कारण फिर भी थोड़ा फासला है लेकिन जो सीधे न्यूज मीडिया पर ही लिखता आया हो, उसकी तो आप और हालत खराब करने जा रहे हैं..लेकिन नहीं, शायद आप ऐसे लगातार होते रहे मुख्यधारा मीडिया के मसले पर उनकी चुप्पी को लेकर या तो आप( आप मतलब हमारी चुप्पी को लगातार नोटिस करनेवाले लोग) अभ्यस्त हो चुके हैं या फिर पहले से ही मान ले रहे हैं कि मेरी तरह उन्हें भी अपना कॉलम बचाना है तो पूछने का क्या लाभ, पहले से विदित ही है कि क्या प्रतिक्रिया देंगे..जिस तरह न्यूज चैनलों को लेकर आप मान चुके हैं कि एबीपी, जी न्यूज, इंडिया न्यूज,न्यूज 24 तो पहले से ही गंध मचाता आया है, इस पर सरोकार की बात करने का क्या मतलब है ?

तो ऐसी स्थिति में मेरी तरफ से दो ही चीज हो सकती है..सबसे पहले मैं सार्वजनिक रुप से ये घोषणा करुं कि चूंकि तहलका का पूरी तरह से नैतिक पतन हो चुका है इसलिए मैं इस पत्रिका की अपनी कॉलम लिखना बंद करता हूं..और दूसरा कि अब तक के लिखे पर पानी डालते हुए ये कहूं कि उस रात बेहद भावुक हो गया था और इस बीच कुछ रेडिकल माइंडसेट का मार्गदर्शन नहीं मिला तो गड़बड़ा गया. आप उसे भूल जाएं..मेरे इस कथन को सिर्फ याद रखें कि तरुण तेजपाल ने गुनाह किया है, वो जघन्य अपराध जिसके लिए माफी नहीं है, समाज में जगह नहीं है, उन्हें सलाखों के पीछे होना चाहिए. आपके हिसाब से मैंने ये दोनों बात करने में चूक रहा हूं जिसे स्पष्ट करना बेहद जरुरी है.

पहली बात तो ये कि मैं अपनी तरफ से तहलका में कॉलम नहीं लिखने का फैसला नहीं करने जा रहा हूं..इसके पीछे उन थोड़े पैसे और शोहरत का लोभ नहीं है जो इस उठापटक जिंदगी में वक्त-वेवक्त काम आते हैं. इसकी वजह अपने ही अनुभव हैं. मैंने तहलका के जिस पन्ने के लिए लिखना शुरु किया था, उसकी जगह और पत्रिका में उसकी हैसियत पहले से मालूम थी. चाट मसाला के ठीक बगल में. हम पहले से जानते थे कि लॉग्जरे, बिकनी पहनायी मैक्यून के बीच हमें सस्ता साहित्य मंडल या पीपीएच का स्टॉल लगाने नहीं कहा जा रहा है बल्कि इसी लॉग्जरे की फेडेड शेड में कुछ लिखने कहा जा रहा है और वो है टीवी शो पर टिप्पणी. मैं कहीं भी लिखते हुए उस मंच को ठीक-ठीक समझता हूं और फिर उस मिजाज के भीतर क्या बदला जा सकता है इस पर विचार करता हूं..तो मैं पहले से बहुत क्लियर था कि तहलका को जिस कारण जाना जाता है, मुझे इस पन्ने में ऐसा कुछ भी करने का मौका नहीं मिलने जा रहा है. हां ये जरुर है कि धीरे-धीरे इस पन्ने को इस तरह हम करेंगे कि वो इस पत्रिका के मिजाज के आसपास की चीज लगेगी. अगर ऐसा नहीं था तो कायदे से मुझे पहले ही कॉलम लिखने के बाद आगे न लिखने का फैसला ले लेना चाहिए था क्योंकि हम चाट मसाला के ठीक बाजू में टीवी शो के ठिए लगाने बैठ गए थे..हां ये जरुर है कि मैंने टीवी पर, एफ एम पर और विज्ञापनों पर लिखते हुए बाकी से अलग लिखने-सोचने की कोशिश जरुर की बल्कि इन विषयों पर तो बाकी जगह कॉलम है भी नहीं, अंग्रेजी सहित एफएम और विज्ञापनों पर तो बिल्कुल भी नहीं.

मेरे लिए ये बेहद आसान रास्ता था कि बीमारी, कॉलेज, व्यस्तता का बहाना बनाकर सिरे से गायब हो जाता या फिर बत्तख,शुतुरमुर्ग की तस्वीरें टांगकर आपसे लाइक-कमेंट की आशा रखता जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं है. एक से एक मीडिया दिग्गज जो उंटी से लेकर खूंटी( झारखंड) तक के मीडिया संगोष्ठियों में होते हैं, यही कला विकसित की है और मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं और अलग से आपके सामने रेखांकित कर रहा हूं तो इसलिए नहीं कि मैं पराक्रमी और इनसे अलग हूं. सच कहूं तो लिखे बिना रहा ही नहीं जाता..कुछ दिन नहीं लिखता हूं तो लगता है जीवन में ऑक्सीजन की कमी हो गई है…लिखे बिना सच में मुझसे जिया नहीं जाएगा और वो भी बिना किसी डेडलाइन और चेकबख्शी के…ये मेरी कमजोरी है, शायद वक्त के साथ-साथ बाकी दिग्गजों की तरह दृढ़ हो जाउं. ऐसे में मुझे जो बेहतर स्थिति लगी वो ये कि मैं जो और जैसा महसूस करता हूं लिखता चलूं..तहलका को मेरी इस टिप्पणी से दिक्कत होगी और भविष्य में मेरी जरुरत नहीं होगी तो लिखना बंद कर दिया जाएगा.. कॉलम तो चुप रहकर भी बचाए जा सकते हैं.. खामखां पचड़े में पड़ने की क्या जरुरत है ?

अब रही तीसरी बात कि हम किसी न किसी तरह से अपने लिखे के जरिए बौद्धिक बचाव कर रहे हैं..अखिलेशजी, मेनस्ट्रीम मीडिया में तरुण तेजपाल की पुत्री की इस पूरे मामले में इस बात की चर्चा है कि उन्होंने अपने पिता के बजाय इस महिला पत्रकार का साथ दिया. कुछ राइटअप में इसके लिए तेजपाल परिवार की परवरिश को क्रेडिट भी दी गई..हालांकि मैं इस परवरिश से कहीं ज्यादा व्यक्तिगत स्तर के फैसले को ज्यादा मजबूती से रेखांकित करना चाहूंगा..क्योंकि मैंने खुद भी महसूस किया है कि जिस तरह की मेरी मां और पिता ने परवरिश की, हम उससे बेहद अलग और उलट हो गए. अच्छा हुए या खराब इस तरह स्याह-सफेद तो बता नहीं सकता फिर भी…लेकिन क्या वैचारिकी की दुनिया में मेरी परवरिश इतनी गई बीती है कि हम उस पत्रिका में अपना कॉलम बचाने के लिए गलत का पक्ष ले रहे हैं जहां के स्वयं पत्रकारों ने खुलकर इसका समर्थन नहीं किया..इसे तरुण तेजपाल की पुत्री से अलग करके रेखांकित करने की जरुरत है.

आपने तो फिर भी लिखकर असहमति जतायी है जिसका जवाब देते हुए मुझे बेहद संतोष हो रहा है, अच्छा लग रहा है लेकिन फोन पर विनीत, तुम ऐसा लिख सकते हो..तुम ऐसा सोचते हो..ये गिल्ट में ले जाने की जिद, इसका हम जैसे टिप्पणीकार क्या करेंगे ? क्या महिला पत्रकार के साथ खड़े होते हुए तहलका पत्रिका के बचे रहने की बात नहीं की जा सकती. आपने जिन आयोजकों और विज्ञापनदाताओं का नाम गिनाते हुए इसे बाकी की ही पत्रिका की तरह बताया है, उससे मुझे कोई असहमति नहीं है बल्कि मंडी में मीडिया की बात करते हुए इतनी बुनियादी समझ तो मेरी भी है कि हम जब तक किसी मीडिया संस्थान की रिवन्यू स्ट्रक्चर पर बात नहीं करते, उसकी पत्रकारिता पर बात करना, विश्लेषण का एक सिरा है, पूरा नहीं. लेकिन इन सबके बावजूद अगर तहलका सरोकारी पत्रकारिता नहीं कर रहा है, इसे आप कॉर्पोरेट गवर्नेंस ही मान लें और बाकी पत्रिकाओं की कार्पोरेट गवर्नेंस से तुलना करें तो कुछ अलग नहीं लगता..मैं इस पत्रिका को किसी भी हाल में उस सरोकारी मुल्लमे के साथ नहीं देख रहा हूं खासकर तब जब इसमे छपे विज्ञापन पर कंपनियों और संस्थानों के लोगो पठार की ही तरह दूर से नजर आते हैं..हमने न तो कल तक किसी मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा माना था और न ही अब मान रहे हैं..हम बस सीएसआर के स्तर पर तुलना कर रहे हैं..रेडिकल माइंड से सोचने पर जो कि सोचा भी जाना चाहिए तो ये सीएसआर का फंडा आपको वाहियात लगेगा लेकिन आनेवाले समय में बल्कि अभी से ही विश्लेषण का आधार यही होगा. खालिस सरोकारी पत्रकारिता के स्तर पर देखने से मार खा जाएंगे हम सब…हमे ये पत्रिका ये करते हुए भी बाकियों से अलग लगती रही है और इसलिए हमने इसकी बात कही और ऐसा कहने से तरुण तेजपाल के गुनाह किसी भी स्तर पर न तो कम होते हैं और न ही पिछले दिनों से जो चला आ रहा है, उससे तहलका की छवि की भरपाई हो सकेगी.

एक जरुरी बात और..अभी जबकि पूरा मेनस्ट्रीम मीडिया तरुण तेजपाल को लेकर केंन्द्रित है, मुझे दीपक चौरसिया, सायमा सहर, कमर वहीद नकवी, सुधीर चौधरी आदि से जुड़े मुद्दे को शामिल करने का क्या तुक है ? हमें इस पर गौर करने की क्या जरुरत है कि जो एन के सिंह सालों से बीइए जैसी शेषनाग की शैय्या पर बैठकर न्यूज चैनलों के पारिजात और चंदनवन जैसा सुराज होने की बात कहते रहे हैं, आज लाइव इंडिया जैसे उस दागदार चैनल में क्या बेहतर करने चले गए जिस पर उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन करने का मामला शामिल है और जिसमे शिक्षिका के कपड़े फड़वाने से लेकर जान ले-लेने के लिए चैनल ने माहौल बनाए थे. बिल्डर-रियल एस्टेट के मालिक के इस चैनल से ऐसा क्या सरोकार वो कर लेंगे जिसे मीडिया इतिहास याद रखेगा..लेकिन नहीं, ये सवाल भी आपके हिसाब से स्थगित किए जाने चाहिएं और फिलहाल सिर्फ और सिर्फ तरुण तेजपाल पर बात हो.

आप मेरे लिखे का मिलान मेनस्ट्रीम मीडिया पर चल रही खबरों की फोटोकॉपी से करेंगे तो अभी नहीं शुरु से असहजता महसूस होगी क्योंकि हमने पॉपुलर माध्यमों पर लिखते हुए भी उसके सवाल ठीक उसी तरह नहीं उठाए जिस तरह वो उठाता रहा है..हम अपने लिखे से किसी को क्यों स्टैंड आर्टिस्ट बनाने जाएं…ऐसे में सोने की खुदाई पर बेतहाशा कवरेज से लेकर आसाराम इंडिया न्यूज हो जाने पर कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए..हम तरुण तेजपाल के खिलाफ खड़े होकर मीडिया के उस धत्तकर्म से पूरी तरह अपने को भला कैसे काट सकते हैं जो वक्त-वेवक्त आपके-हमारे यकीन की डोज पिला जाता है. एक बड़ी आबादी है जो इन न्यूजों पर चल रही यौन उत्पीड़न की खबर को लेकर लहालोट हो सकता है लेकिन अगर आप इनकी पूरी भाषा ौर पैकेजिंग पर गौर करेंगे तो लगेगा कि ये बलात्कार से लेकर छेड़छाड़, स्त्री हिंसा की वर्कशॉप चला रहे हैं. बलात्कार की इन्होंने टेलीविजन के अपने संस्करण तैयार कर लिए है…ये काम मुझे अभी तक इस पत्रिका में नहीं दिखाई दे रहे.. मूड्स के विज्ञापन मिलने की एवज में जिस दिन ये पत्रिका इंडिया टुडे हो जाएगी, हम उस दिन बेहतर कार्पोरेट गवर्नेंस का भी दावा छोड़ देंगे.

हमने सायमा सहर से लेकर उमा खुराना जैसे मुद्दे इसलिए उठाए क्योंकि इस पर मेनस्ट्रीम मीडिया ने हमेशा से न केवल चुप्पी साध ली बल्कि इस मामले को पूरी तरह दबाया, कुचला.. हम लगातार लिखते रहे कि ये फर्जी स्टिंग ऑपरेशन करनेवाला प्रकाश सिंह दिनोंदिन और ताकतवर होता जा रहा है लेकिन वो होता रहा और उसी मीडिया में उसे स्वीकृति मिलती रही. उसी दागदार सुधीर चौधरी के समर्थन में जंतर-मंतर में कैंडिल मार्च निकले जिस पर कि सौ करोड़ रुपये की दलाली के आरोप लगे..किससे सवाल किया आपने, किसे रोका आपने. बीइए-एनबीए को ऐसी घुड़की दी कि चारों खाने चित्त और आज वो प्राइम टाइम का मसीहा बनकर दर्शकों के दिमाग पर काबिज होने की कोशिश में है. आत्महत्या के लिए उकसानेवाले मामले को दिल्ली से दो दिन के लिए मीडियाकर्मी जाते हैं औऱ मामले को रफा-दफा कर आते हैं, कोई बोलनेवाला नहीं. गोवाहाटी यौन उत्पीड़न मामले में वीडियो बनाने-उकसानेवाला रिपोर्टर सालभर के भीतर दोबारा उस चैनल में चला जाता है, कोई नोटिस लेनेवाला नहीं, जरा पूछिए तो सही दिबांग, आशुतोष और एन के सिंह से तो कि क्या किया आपने अपनी कमेटी का ?

अखिलेशजी, आज आप सबों को तरुण तेजपाल सिर्फ मुद्दा लग रहे हैं लेकिन मैं ऐसे तरुण तेजपाल के बनने की प्रक्रिया को अपनी बातचीत में शामिल करना चाहता हूं और माफ कीजिएगा आपको पढ़कर बुरा लगेगा कि हम इस प्रक्रिया और इसमे शामिल लोगों को भी अभी तक कुछ नहीं कर पा रहे. मैं ये बात हताशा में नहीं कह रहा हू बल्कि उस नंगे सच को रखकर कह रहा हूं जहां एक्सेप्टेंस बरकरार है. आप जिसे साख के खाक में मिल जाने की बात कर रहे हैं, कल अगर इसी तरुण तेजपाल की समाज में फिर से एक्सेप्टेंस बन जाती है तो साख बहुत पीछे छूट जाती है..ये काम अब पीआर एजेंसियां करने लगी है और ऐसा हमने हाल ही में जी न्यूज मामले में देखा है. लाइव इंडिया प्रकरण तो भूल ही चुके होंगे कई लोग…नया ज्ञानोदय के विभूति छिनाल प्रकरण को याद करते हैं तो यही एक्सेपटेंस इतना साफ है कि उस लेखिका को छिनाल कहे जानेवाले हंटर साहब के साथ मंच साझा करने में कोई आपत्ति नहीं लगी और रेडिकल माइंडसेट के कई लोग आहत हुए..हां ये जरुर है कि तो भी हमें व्यक्तिगत स्तर पर चीजों को ले जाकर फैसले ले जाने के बजाय सैद्धांतिक आधारों पर ही केंद्रित रहना चाहिए.

मैंने इन सबके बीच तहलका और तरुण तेजपाल को अलग से देखे जाने की बात इसलिए की क्योंकि इस मामले में कई चैनलों ने लगातार तहलका प्रकरण लिखकर स्टोरी चलायी..मामला एक व्यक्ति का था और है लेकिन पैकेज में तहलका की वो कवर स्टोरी के पन्ने उछाले गए जो यकीनन एक बेहतरीन पत्रकारिता अभ्यास का नमूना है. मुझे ये बात शिद्दत से महसूस हुई कि तरुण तेजपाल के बहाने इस पत्रिका के उस दौर को भी ब्लर किए जाने की कोशिशें की गईं जिसने मीडिया को नए सिरे से परिभाषित किया. हम व्यक्तिगत स्तर पर लिखनेवाले लोग हैं. हमारी साख और एक्सेपटेंस के बीच का फासला बहुत कम है..ऐसे में हम एक कॉलम बचाने के लिए, कुछ पैसे के लिए, शोहरत के लिए विश्लेषण शामिल नहीं कर सकते..आपकी असहमति अपनी जगह बिल्कुल जायज है लेकिन किसी की नियत पर इतना जल्दी सवाल उठाना……जब सारे फैसले इसी तरह से लिए जाएंगे तो लिखने-पढ़ने और ठहरकर सोचने की दुनिया का क्या मतलब रह जाएगा..

तरुण तेजपाल मामले में बाकी मामलों के मुकाबले आपको मेरा पक्ष मुलायम लगा, ऐसा स्वाभाविक ही है..कई बार तात्कालिकता की आंच में विचारना की लौ अलग से नजर नहीं आती.

आपका
विनीत

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