एलेन ओक्टेवियन ह्यूम और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस:हृदय परिवर्तन की अनोखी ‘ज्योति’ का प्रस्फुटन इटावा से

देवेश शास्त्री

आज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थिति की तुलना यदि अपने मित्र दीपचन्द्र त्रिपाठी ‘निर्बल’ के इस दोहे के आधार पर बहुसंख्यक समुदाय के हालात से करें तो समुचित होगा- ‘‘सहमे सहमे से रहते हैं, हिन्दू हिन्दुस्तान में। ईश्वर जाने कैसे रहते होंगे पाकिस्तान में।।’’ हां, आज जहां एक ओर हिन्दू सहमा हुआ, वहीं दूसरी ओर वह कांग्रेस जिसे खड़ा होने में जितना समय लगा, उतना ही पतन में। जिसकी कभी तूती बोलती थी, आज लोकसभा में प्रतिपक्ष दल होने की भी हैसियत नहीं जुटा पा रही है, निसंदेह यह ‘कर्मगति’ है। उसी तरह तथाकथित हिन्दुत्व की झंडावरदार पार्टी के प्रभुत्व में हिन्दू अपने बिछुड़े साथियों को घर में वापस लाने के प्रयास को भी आपराधिक श्रेणी में गिना जा रहा है। तब लगता है- ईश्वर जाने कैसे रहते होंगे पाकिस्तान में?

आज 28 दिसम्बर है, 129 वर्ष पहले यानी 1885 को आज ही के दिन आतताई ब्रिटिश हुकूमत के एक अफसर ने भारत की आजादी और स्वराज के लिए एक ‘प्लेटफार्म’ दिया, जो है ‘‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस।’’ अंग्रेज अफसर का आखिर हृदय परिवर्तन कैसे हुआ, संस्कृतनिष्ठा और इष्टसाध्य इटावा की अदृश्य ज्योति से!

1829 को इंग्लैंड में जन्में एलेन ओक्टेवियन ह्यूम ब्रिटिश कालीन भारत में सिविल सेवा के अधिकारी एवं राजनैतिक सुधारक थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे। इसी पार्टी ने भारत की स्वतंत्रता के लिये मुख्य रूप से संघर्ष किया और अधिकांश संघर्षों का नेतृत्व किया।
ए. ओ. ह्यूम ने भारत में भिन्न-भिन्न पदों पर काम किया इनमें ‘इटावा का कलक्टर पद’ महत्वपूर्ण है, यही हुए हृदय परिवर्तन ने भारतवर्ष की स्वतंत्रता की नींव रखी। ‘‘ब्रिटिश हुकूमत के प्रति बफादार व समर्पित हिन्दुस्तानियों का संगठन खड़ा करने की मानसिकता ने इंडियन नेशनल कांग्रेस का खाका भले ही ए. ओ. ह्यूम के दिमाग में खिंचा था, मगर उस वक्त राष्ट्रभक्त हिन्दुस्तानियों के विद्रोही तेवर के आगे ए. ओ. ह्यूम को मुंह की खानी पड़ी, और जान बचाकर महिला के लिवास में जिलामुख्यालय इटावा छोड़कर यमुनापार भागना पड़ा। इस घटना ने कलक्टर का हृदय परिवर्तन कर दिया और दिमाग में ‘ब्रिटिश हुकूमत के प्रति बफादार व समर्पित हिन्दुस्तानियों का संगठन खड़ा करने खाका स्वतः बदल गया। यही है इष्टसाध्य इटावा की अदृश्य ज्योति का कमाल।’’

यहां उस अदृश्य ज्योति का भी उल्लेख प्रासंगिक है, जिसे गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तक एक लोटा पानी में पढ़ा जा सकता है। ब्रिटिश हुकूमत के ही भरथना के डिप्टी कलक्टर सर सप्रू अपने सेवक के एक दृष्टान्त से विरक्त होकर सिद्ध सन्त खटखटा बाबा हो गये, बाबा की चमत्कारी सिद्धि से प्रभावित होकर ब्रिटिश हुकूमत के ही जिला जज, मैनपुरी भी नौकरी छोड़कर खटखटा बाबा के शिष्य बन गये।

इटावा में रहते हुए कलक्टर ए. ओ. ह्यूम कालेज, कोतवाली, जिला परिषद भवन सहित कई इमारतें, अनाज मंडी (जिसे ह्यूमगंज नाम दिया गया) व सड़के बनवाई। किन्तु कदाचार से पूरी तरह विरक्त हो चुके ए. ओ. ह्यूम ने 1882 में अवकाश ग्रहण किया।

वरिष्ठ अधिवक्ता स्व. पं. कृष्ण गोपाल चैधरी द्वारा लिखी गई पुस्तक से तमाम रहस्योद्घाटन होते हंै जो मूलतः कलक्टर ह्यूम व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर केन्द्रित है। इंग्लैंड में ह्यूम साहब ने अंग्रेजों को यह बताया कि भारतवासी अब इस योग्य हैं कि वे अपने देश का प्रबंध स्वयं कर सकते हैं। उनको अंग्रेजों की भाँति सब प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिए और सरकारी नौकरियों में भी समानता होना आवश्यक है। जब तक ऐसा न होगा, वे चैन से न बैठेंगे।
ह्यूम ने सन् 1885 में, ब्रिटिश शासन की अनुमति से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया था। कांग्रेस एक राजनैतिक पार्टी थी और इसका उद्देश्य था अंग्रेजी शासन व्यवस्था में भारतीयों की भागीदारी दिलाना। ब्रिटिश पार्लियामेंट में विरोधी पार्टी की हैसियत से काम करना। अब प्रश्न यह उठता है कि ह्यूम साहब, जो कि सिविल सर्विस से अवकाश प्राप्त अफसर थे, को भारतीयों के राजनैतिक हित की चिन्ता क्यों और कैसे जाग गई?

सन् 1885 से पहले अंग्रेज अपनी शासन व्यवस्था में भारतीयों का जरा भी दखलअंदाजी पसंद नहीं करते थे। तो फिर एक बार फिर प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों दी ब्रिटिश शासन ने एक भारतीय राजनैतिक पार्टी बनाने की अनुमति? यदि उपरोक्त दोनों प्रश्नों का उत्तर खोजें तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीयों को अपनी राजनीति में स्थान देना अंग्रेजों की मजबूरी बन गई थी। सन् 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों की आँखें खोल दी थी। अपने ऊपर आए इतनी बड़ी आफत का विश्लेषण करने पर उन्हें समझ में आया कि यह गुलामी से क्षुब्ध जनता का बढ़ता हुआ आक्रोश ही था जो आफत बन कर उन पर टूटा था। यह ठीक उसी प्रकार था जैसे कि किसी गुब्बारे का अधिक हवा भरे जाने के कारण फूट जाना।

समझ में आ जाने पर अंग्रेजों ने इस आफत से बचाव के लिए तरीका निकाला और वह तरीका था सेफ्टी वाल्व्ह का। जैसे प्रेसर कूकर में प्रेसर बढ़ जाने पर सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते निकल जाता है और कूकर को हानि नहीं होती वैसे ही गुलाम भारतीयों के आक्रोश को सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते बाहर निकालने का सेफ्टी वाल्व्ह बनाया अंग्रेजों ने कांग्रेस के रूप में। अंग्रेजों ने सोचा कि गुलाम भारतीयों के इस आक्रोश को कम करने के लिए उनकी बातों को शासन समक्ष रखने देने में ही भलाई है।

इसी क्रम में कांग्रेस की स्थापना के ठीक 50वें वर्ष 1935 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ‘‘धारा सभा के गठन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आधार शिला रखनी पड़ी, जिसमें कांग्रेस प्रत्याशी को सीधे ब्रिटिश हुकूमत के प्रतिनिधि प्रत्याशी से चुनाव लड़ना होता था। 1937 के पहले धारासभा चुनाव में इटावा-भरथना सीट से कांग्रेस प्रत्याशी चै. बुद्धू सिंह ने ब्रिटिश प्रतिनिधि उम्मीदवार लखना नरेश नरसिंह रावको पछाड़ा।

ह्यूम के कांग्रेस गठन के प्रस्ताव पर ब्रिटिश पार्लियामेंट की मुहर लगने के सन्दर्भ में कुछ विचारकों का मत यह भी है – ‘‘सीधी सी बात है कि यदि किसी की बात को कोई सुने ही नहीं तो उसका आक्रोश बढ़ते जाता है किन्तु उसकी बात को सिर्फ यदि सुन लिया जाए तो उसका आधा आक्रोश यूँ ही कम हो जाता है। यही सोचकर ब्रिटिश शासन ने भारतीयों की समस्याओं को शासन तक पहुँचने देने का निश्चय किया। और इसके लिए उन्हें भारतीयों को एक पार्टी बना कर राजनैतिक अधिकार देना जरूरी था। एक ऐसी संस्था का होना जरूरी था जो कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारतीयों का पक्ष रख सके। याने कि भारतीयों की एक राजनैतिक पार्टी बनाना अंग्रेजों की मजबूरी थी। किसी भारतीय को एक राजनैतिक पार्टी का गठन करने का गौरव भी नहीं देना चाहते थे वे अंग्रेज। और इसीलिए बड़े ही चालाकी के साथ उन्होंने ह्यूम साहब को सिखा पढ़ा कर भेज दिया भारतीयों के पास एक राजनैतिक पार्टी बनाने के लिए। इसका एक बड़ा फायदा उन्हें यह भी मिला कि एक अंग्रेज हम भारतीयों के नजर में महान बन गया, हम भारतीय स्वयं को अंग्रेजों का एहसानमंद भी समझने लगे। ये था अंग्रेजों का एक तीर से दो शिकार!’’

ब्रिटिश सरकार के असंतोष जनक कार्यों के फलस्वरूप भारत में अद्भुत जाग्रति उत्पन्न हो गई और वे अपने को संघटित करने लगे। इस कार्य में ह्यूम साहब से भारतीयों बड़ी प्रेरणा मिली। 1884 के अंतिम भाग में सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा व्योमेशचंद्र बनर्जी और ह्यूम साहब के प्रयत्न से इंडियन नेशनल यूनियम का संघटन किया गया।

27 दिसम्बर 1885 को भारत के भिन्न-भिन्न भागों से भारतीय नेता बंबई पहुँचे और दूसरे दिन 28 दिसम्बर 1885 को 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में बाम्बे के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में सम्मेलन आरंभ हुआ। इस सम्मेलन का सारा प्रबंध ह्यूम ने किया था। इस प्रथम सम्मेलन के सभापति व्योमेशचंद्र बनर्जी बनाए गए थे जो बड़े योग्य तथा प्रतिष्ठित बंगाली क्रिश्चियन वकील थे। यह सम्मेलन ‘‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

1907 में काँग्रेस में दो दल बन चुके थे – गरम दल एवं नरम दल। गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं बिपिन चंद्र पाल (जिन्हें लाल-बाल-पाल भी कहा जाता है) कर रहे थे। जबकि नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता एवं दादा भाई नौरोजी कर रहे थे।

गरम दल पूर्ण स्वराज की माँग कर रहा था परन्तु नरम दल ब्रिटिश राज में स्वशासन चाहता था। प्रथम विश्व युद्ध के छिड़ने के बाद सन् 1916 की लखनऊ बैठक में दोनों दल फिर एक हो गये और होम रूल आंदोलन की शुरुआत हुई जिसके तहत ब्रिटिश राज में भारत के लिये अधिराज्य अवस्था (डामिनियन स्टेटस) की माँग की गयी।

परन्तु 1915 में गाँधी जी के भारत आगमन के साथ काँग्रेस में बहुत बड़ा बदलाव आया। चम्पारन एवं खेड़ा में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जन समर्थन से अपनी पहली सफलता मिली। 1919 में जालियाँवाला बाग हत्याकांड के पश्चात गान्धी जी काँग्रेस के महासचिव बने। उनके मार्गदर्शन में काँग्रेस कुलीन वर्गीय संस्था से बदलकर एक जनसमुदाय संस्था बन गयी। तत्पश्चात् राष्ट्रीय नेताओं की एक नयी पीढ़ी आयी जिसमें सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद, महादेव देसाई एवं सुभाष चंद्र बोस आदि शामिल थे। गान्धीजी के नेतृत्व में प्रदेश काँग्रेस कमेटियों का निर्माण हुआ, काँग्रेस में सभी पदों के लिये चुनाव की शुरुआत हुई, सभी भेदभाव हटाये गये एवं कार्यवाहियों के लिये भारतीय भाषाओं का प्रयोग शुरू हुआ। काँग्रेस ने कई प्रान्तों में सामाजिक समस्याओं को हटाने के प्रयत्न किये जिनमें छुआछूत, पर्दाप्रथा एवं मद्यपान आदि शामिल थे।

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