आखिर टीवी न्यूज़ में खबरों का टोटा क्यों है?

news_channels_खबर के लिए मैं कभी किसी एक माध्यम पर निर्भर नहीं होता. जब-जैसी जरूरत होती है, उस चीज का सहारा ले लेता हूं. इंटरनेट, टीवी, रेडियो, अखबार, सोशल मीडिया और मित्रगण. ऐसा भी नहीं है कि इनमें से कोई एक चीज किसी दिन ना देखूं-सुनूं तो खाना हजम नहीं होगा, बेचैनी बढ़ जाएगी, बीपी बढ़ जाएगा.

मैं इस बात से भी इत्तफाक नहीं रखता कि अगर अखबार नहीं आए-मिले तो टीवी के लिए खबरों का टोटा पड़ जाएगा. अगर ये बात है तो क्या यह मान लिया जाए कि अखबार में सुपर रिपोर्टर्स रहते हैं और टीवी में कमतर रिपोर्टर. नहीं, ऐसा नहीं है. ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपने अपने खबरों के संचयन का कैसा तरीका अपनाया हुआ है. अगर आपने निर्भरता अखबार पर बढ़ाई है तो ये आपकी समस्या है. वरना टीवी चैनल्स के पास रिपोर्टर्स और स्ट्रिंगर्स का जो लंबा चौड़ा देशव्यापी नेटवर्क होता है, वह तो अच्छे-अच्छे बड़े अखबारों के पास भी नहीं होता. हर प्रमुख राज्य में एक ब्यूरो चीफ और उसके साथ उस राज्य में ही रिपोर्टर्स-स्ट्रिंगर्स की एक पूरी सेना. तब अंदाजा लगा लीजिए कि भारत में कितने राज्य हैं और ये नेटवर्क कितना बड़ा होगा. और अखबार की तरह टीवी में भी स्ट्रिंगर्स को बंधा-बंधाया पैसा देने की परंपरा नहीं है. अगर भूले-भटके कभी स्टोरी चल गई तो उसका पैसा मिल जाता है. लेकिन स्ट्रिंगर अपने इलाके में उस चैनल (या यूं कहें कि कई चैनल्स) का संवाददाता बनकर सालभर घूमता है. खबरें शूट करके भेजता भी है. ये अलग बात है कि उचित मार्गदर्शन के आभाव में और टीआरपी की रेस के कारण उसकी भेजी ज्यादातर खबरें Assignment desk कूड़े के डिब्बे में डाल देता है. हर टीवी चैनल में यही होता है. हिन्दी का हो या अंग्रेजी का या किसी और भाषा का. और फिर कहा जाता है कि टीवी में खबरों के लाले पड़ गए हैं. आखिर कैसे भइया???

तो जरुरत अखबारों पर निर्भरता बनाने-बताने की बजाय अपना सिस्टम सुधारने की है. टीवी के अगर कुछ रिपोर्टर आरामतलब या यूं कहें कि -खबर उठाऊ- टाइप हो गए हैं, तो इसे कौन ठीक करेगा?? इसके लिए कौन जिम्मेदार है??? आप न्यूज मीटिंग में अखबार के रिपोर्टर से बात करिए और टीवी के रिपोर्टर से. अखबार का रिपोर्टर जहां आपको तीन-चार स्टोरी आइडिया बताएगा, वहीं टीवी का रिपोर्टर एक या ज्यादा से ज्यादा दो आइडियाज. ये ठीक है कि दोनों माध्यम अलग हैं और दोनों में खबरों के चयन-प्रकाशन-प्रसारण के अलग नियम-रूल्स होते हैं, तरीका होता है, पर ये तो हो ही सकता है कि जो पत्रकार जिस विधा में काम कर रहा है, वह उसकी जरूरतों के अनुसार स्टोरी आइडिया ढूंढे और बताए. और अगर विधा का बहाना बनाकर आप अपनी कमजोरी छुपाते हैं तो फिर अखबार से स्टोरी उठाकर उसे टीवी के लायक आप कैसे बना लेते हैं?? ये भी बताना होगा.

सच ये है कि टीवी में news gathering का वही पुराना चला-चलाया ढर्रा आज तक चल रहा है. कुछ एजेंसी से ले लो, कुछ अखबार देख के उठा लो और एकाध स्टोरी अपना टीवी वाला रिपोर्टर तो बता ही देगा. अगर ये भी कम पड़ गया तो इंटरनेट पर कोई तड़क-भड़क-सांप-बिच्छू-भूत-प्रेत-रहस्य-रोमांच वाली स्टोरी खोज लो. फिर youtube से उससे मिलते-जुलते विजुअल निकालो और पैकेजिंग करके स्टोरी या आधे घंटे का शो बना दो. मेरे ख्याल से ज्यादातर चैनलों में यही हो रहा है. सच तो ये है कि news gathering और content planning पर यहां नए सिरे से सोचने की जरूरत है. और ये तभी होगा जब आपकी priorities तय होंगी. खबरों को लेकर क्या दृष्टिकोण अपनाना है, कैसी खबरें लेनी है या चलानी है, ये guidelines क्लियर होंगे. फिलहाल तो ये दिखता है कि एक दफा hard news और सरोकारी खबर की बात टीम से कह दी जाती है और अगले ही पल चैनल का एजेंडा बदल जाता है. जब दूसरे चैनल हजार टन सोना ढूंढने निकलते हैं तो फिर क्या दूध और क्या पानी. सब बराबर. फिर सारे एजेंडे एक तरफ और टीआरपी वाली खबर सब पर भारी. यानी खजाना ही चलेगा, बाकी स्टोरीज गईं तेल लेने. Assignment और रिपोर्टर्स की सारी मेहनत बेकार. वो भी हाथ पर हाथ धरे बैठ जाते हैं कि जब स्टोरी चलनी ही नहीं है तो फिर काहे कोई सिर फोड़े.

लेकिन अखबार में ऐसा नहीं है. अगर खबर मंगाई जाती है या भेजी जाती है तो यथासंभव उसे तवज्जो दी जाती है. अगर स्टोरी में -time value- है तो उसे story bank मे डाल दिया जाता है और जरूरत पड़ी तो नए सिरे से डिवेलप कराकर स्टोरी छापी जाती है. रिपोर्टर्स की मेहनत बेकार नहीं जाती वहां पर. उनका हौसला इतना नहीं तोड़ा जाता, जितना टीवी में तोड़ा जाता है. जब 1000 टन खजाना चलेगा तो फिर डिस्कशन भी उसी पर होगा, स्टोरी भी उसे से संबंधित जाएगी. तब आपके नैशनल-मेट्रो-स्टेट ब्यूरो sleeping mode में चले जाएंगे. हां, अगर कुछ Breaking हो गया तो थोड़ी देर के लिए उस खबर पर जाएंगे और फिर पुराने ढर्रे-आलाप पर लौट आएंगे.

सो टीवी में जब खबरों के चयन-संचयन-प्रसारण और उसकी योजना का ये हाल होगा तो -खजाने वाली या उसके जैसी स्टोरी- नहीं होने पर आपके यहां खबरों का टोटा तो होगा ही. इसके लिए आप लोग ही जिम्मेदार हुए ना. वरना यदि रोज priority के अनुसार खबर मंगाने और उसे चलाने का ढर्रा बना दिया जाए तो टीवी माध्यम के हिसाब से ही (visual के साथ) खबरों का टोटा या कंगाली कैसे होगी???!!! इतना विशाल देश है और पल-पल यहां कई खबरें जन्म ले रही हैं. ऐसे में अखबार के बिना खबरों के आकाल की बात मेरे गले नहीं उतरती. हां, ये जरूर है कि टीवी वालों को यदि आरामतलबी की आदत हो गई है, दूसरों की मेहनत टीपने की लत पड़ गई है (अखबार से खबर उठाकर उसे लीपपोत के पेश कर दो) और ये उनके work culture में शामिल हो गया है, तो खबरों का टोटा उनको जरूर होगा. और ये work culture ऐसा है, जो हर सीनियर अपने जूनियर को सिखाता जा रहा है, पीढ़ी दर पीढ़ी. कि बेटा, ज्यादा दिमाग मत लड़ाओ. ऐसे प्लान करो और बॉस को खबरें परोस दो. चल गया चैनल.

तो अखबार की ही तरह टीवी में जरूरत है long term planning की. अरे खबरें इतनी है कि आप चला नहीं पाओगे. 24 घंटे कम पड़ जाएंगे आपको. बस जरूरत है मजबूत इच्छाशक्ति की और ढर्रा बदलने की हिम्मत की. जब टीवी इस देश में शुरु हुआ तो किसी ना किसी ने बैठकर इसके लिए news gather का तरीका बनाया होगा ना. तो इतना समय बदल गया, जरूरतें बदल गईं, दर्शकों के टेस्ट बदल गए, मार्केट का dynamics बदल गया, फिर खबरों के संकलन का

नदीम एस अख्तर
नदीम एस अख्तर
तरीका लगभग पहले जैसा ही क्यों, क्यों वही पुराना ढर्रा?? लगभग सारे चैनलों में. अपनी जरूरत के हिसाब से अपना खुद का तरीका डिवेलप करिए ना. नया work culture बनाइए ना. अगर ये बन जाए तो शायद टीवी की खबरों में भी कुछ ताजगी आए. रिपोर्टर्स का हौसला बढ़े और फिर खबरों का टोटा ना रहे. कितना अच्छा हो हर चैनल पर हर तरह की खबर. सबके अपने-अपने exclusive. अखबार के भी अपने exclusive. फिर टीवी और अखबार एक-दूसरे से खबरें ले और डिवेलप करे. यानी News-खबरों का पूरा bombardment. जनता की जय-जय. सबका दुख सुना जाएगा, सबसे हिसाब लिया जाएगा. यही तो है लोकतंत्र का असली मतलब और मीडिया के चौथे खंभे होने की सार्थकता.

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